SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०४ बौद्धमत का निराकरण किया जा रहा हैं।" (तात्पर्यवृत्ति) ___ गाथा-"यदि मोक्षावस्था में जीव का अभाव माना जाय, तो जीव द्रव्यरूप से शाश्वत है, यह कथन संगत नहीं होगा और नित्य जीवद्रव्य का प्रतिसमय पर्याय की अपेक्षा उच्छेद (विनाश) होता है, यह कथन भी घटित नहीं होगा, क्योंकि जब मोक्षावस्था में जीव का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, तब पर्याय की अपेक्षा उच्छेद किसका होगा? तथा सर्वदा नयी-नयी पर्याय का आविर्भाव भव्यत्व है एवं सदा पूर्व-पूर्व पर्याय का विनाश अभव्यत्व। इन दोनों धर्मों का अस्तित्व भी मोक्ष में जीव का सद्भाव न होने से उपपन्न नहीं होगा। इसी प्रकार जीव द्रव्य में अन्य द्रव्य का अभाव शून्यत्व तथा स्वस्वरूप का सद्भाव अशून्यत्व है। मोक्ष में जीव की सत्ता न रहने पर इन दोनों धर्मों की सत्ता भी घटित नहीं होगी। तथैव सिद्धों में केवलज्ञान का सद्भाव विज्ञान का सद्भाव है और क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव अविज्ञान का सद्भाव। मोक्ष के अनन्तर जीव की सत्ता न रहने पर इन दोनों भावों की भी सत्ता संभव नहीं होगी। इस प्रकार मोक्षावस्था में जीव के सद्भाव के बिना इन आठ धर्मों का सद्भाव उपपन्न नहीं होता, अतः अन्यथा अनुपपद्यमान होने से ये आठ धर्म मोक्षावस्था में जीव का सद्भाव सूचित करते हैं।" १२९ __ इन आठ धर्मों के अस्तित्व का प्रतिपादन कर आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षावस्था में जीव के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है, जिससे 'जीव का अभाव मुक्ति है' इस बौद्धमत का निरसन हो जाता है। पञ्चास्तिकाय की इस गाथा में प्रयुक्त 'शाश्वत', 'उच्छेद', 'शून्य', 'विज्ञान' आदि शब्दों को मालवणिया जी ने शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, शून्यवाद आदि दार्शनिक वादों का वाचक मान लिया है और कहा है कि "तत्कालीन नाना विरोधी वादों का सुन्दर समन्वय कुन्दकुन्द ने परमात्मा के स्वरूप-वर्णन के बहाने कर दिया है। उससे १२९. क-"द्रव्यं द्रव्यतया शाश्वतमिति, नित्ये द्रव्ये पर्यायाणां प्रतिसमयमुच्छेद इति, द्रव्यस्य सर्वदा अभूतपर्यायैः भाव्यमिति, द्रव्यस्य सर्वदा भूतपर्यायैरभाव्यमिति, द्रव्यमन्यद्रव्यैः सह सदा शून्यमिति, द्रव्यं स्वद्रव्येण सदाऽशून्यमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनन्तं ज्ञानं क्वचित्सान्तं ज्ञानमिति, क्वचिज्जीवद्रव्येऽनन्तं क्वचित्सान्तमज्ञानमिति। एतदन्यथानुपपद्यमानं मुक्तौ जीवस्य सद्भावमावेदयतीति।" समयव्याख्या / पञ्चास्तिकाय / गा.३७। ख-"--- केवलज्ञानगुणेन विज्ञानं, विनष्टमतिज्ञानादिछद्मस्थज्ञानेन परिज्ञानादविज्ञानमिति। -- इदं तु नित्यत्वादिस्वभावगुणाष्टकमविद्यमानजीवसद्भावे मोक्षे न युज्यते न घटते तदस्ति-त्वादेव ज्ञायते मुक्तौ शुद्धजीवसद्भावोऽस्ति।" तात्पर्यवृत्ति / पञ्चास्तिकाय / गा. ३७। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy