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________________ अ०१० / प्र०४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३४१ में सत्सामान्य की अपेक्षा समस्त पदार्थों में एकत्व या अद्वैत का प्रतिपादन किया गया है, यथा “सर्वमेकं सदविशेषात् " ( १ / ३५ / पृ. ६५) । साथ ही अपेक्षाभेद से द्वित्व, त्रित्व आदि भी प्रतिपादित किये गये हैं, यथा “सर्वं द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् सर्वं त्रित्वं द्रव्यगुणपर्यायावरोधात् -- - ।" (१ / ३५ ) । इसी संग्रहनयात्मक अद्वैत का निरूपण धवला में किया गया है - " तत्र सत्तादिना यः सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्यति शुद्धद्रव्यार्थिकः स संग्रहः " ( ष.खं. / पु.९ / ४,१,४५ / पृ.१७०) । यदि इस अद्वैतवाद का प्रतिपादन जैनदर्शन को ब्रह्माद्वैतवाद या विज्ञानाद्वैतवाद के निकट लाकर रखना माना जाय, तो यह मानना होगा कि यह कार्य सुधर्मा स्वामी आदि सभी प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने भी किया है। किन्तु यह माननीय मालवणिया जी को मान्य नहीं हो सकता। क्यों? इसके उत्तर में वे यही कहेंगे कि श्वेताम्बराचार्यों को मान्य अद्वैतवाद ब्रह्माद्वैतवाद या विज्ञानाद्वैतवाद से भिन्न है। श्वेताम्बराचार्यों को मान्य अद्वैतवाद द्वैतसापेक्ष है, जबकि ब्रह्माद्वैतवाद या विज्ञानाद्वैतवाद द्वैतनिरपेक्ष है । कुन्दकुन्द को मान्य अद्वैतवाद भी द्वैतसापेक्ष है । अर्थात् कुन्दकुन्द - प्रतिपादित जैन- अद्वैतवाद ब्रह्माद्वैतवाद एवं विज्ञानाद्वैतवाद के समान ऐकान्तिक नहीं है, अपितु प्रतिपक्षी द्वैतवाद को भी स्वीकार करने के कारण अनैकान्तिक है। इस तरह कुन्दकुन्द - प्रतिपादित अनैकान्तिक जैन- अद्वैतवाद तथा प्रतिपक्षी ऐकान्तिक ब्रह्माद्वैतवाद एवं विज्ञानद्वैतवाद के बीच उतनी ही दूरी है, जितनी उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के बीच । अतः मालवणिया जी ने कुन्दकुन्द पर जैनदर्शन को ब्रह्माद्वैतवाद या विज्ञानाद्वैतवाद के निकट लाकर रखने का जो आरोप लगाया है वह असत्य, युक्तिप्रमाणविरुद्ध पक्षपातपूर्ण एवं अन्यायपूर्ण है। २.२. शाश्वत, उच्छेद, शून्य, विज्ञान आदि वस्तुधर्मों की संज्ञाएँ मालवणिया जी का मत 'पंचास्तिकाय' में " अत्र जीवाभावो मुक्तिरिति निरस्तम्" ( समयव्याख्या) तथा " अथ जीवाभावो मुक्तिरिति सौगतमतं विशेषेण निराकरोति” (तात्पर्यवृत्ति), इन उत्थानिकाओं के साथ निम्नलिखित गाथा कही गयी है— > Jain Education International सस्सदमध उच्छेदं भव्वमभव्वं च सुण्णमिदरं च । विण्णाणमविण्णाणं ण वि जुज्जदि असदि सब्भावे ॥ ३७ ॥ अनुवाद उत्थानिका — " इस गाथा में 'जीव का अभाव हो जाना मुक्ति है' इस मत को निरस्त किया गया है । ( समयव्याख्या) । ' अब जीव का अभाव मुक्ति है' इस For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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