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________________ ३४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०४ आचार्य समन्तभद्र ने भी कहा है-'अभेदभेदात्मकमर्थतत्त्वम्' (युक्त्यनुशासन/ ७)= वस्तु अभेदात्मक और भेदात्मक उभयरूप है। 'अनेकमेकं च तदेव तत्त्वम्' (स्वयम्भूस्तोत्र / २२) = जो वस्तु अनेकरूप है, वही एकरूप है। माननीय मालवणिया जी ने भी स्वीकार किया है कि "आगमों में भी द्रव्य और गुणपर्याय के अभेद का कथन मिलता है।" (न्या. वा. वृ./ प्रस्ता./ पृ.१२१)। इस प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय या धर्म-धर्मी का प्रदेशगत अभेद अर्थात् प्रत्येक द्रव्य का अद्वैतस्वभाव (अखण्डता, निरवयवता) जिनोपदिष्ट वस्तुस्वरूप है। कुन्दकुन्द ने इसी का निश्चयनय के द्वारा प्रकाशन किया है। मालवणिया जी भी इसका समर्थन करते हुए कहते हैं ___ "आगम में जहाँ द्रव्य और पर्याय का भेद और अभेद माना गया है, वहाँ आचार्य (कुन्दकुन्द) स्पष्ट करते हैं कि द्रव्य और पर्याय का भेद व्यवहार के आश्रय से है, जब कि निश्चय से दोनों का अभेद है।" (न्या.वा.वृ./ प्रस्ता./ पृ.११९१२०)। मालवणिया जी यह भी मानते हैं कि निश्चय और व्यवहार नयों का उल्लेख आगमों में है। भगवान् महावीर ने इन दोनों नयों के आश्रय से गौतम के प्रश्नों का समाधान किया था (भगवतीसूत्र / १८.६ / न्या. वा.वृ. / प्रस्ता. / पृ.५४)। इन प्रमाणों से तथा मान्य मालवणिया जी के स्वकीय वचनों से सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में जो प्रत्येक द्रव्य के कथंचित् अद्वैतस्वरूप का प्रतिपादन किया है, वह उनकी अपनी देन नहीं है, अपितु भगवान् महावीर के उपदेश का अंग है। तथा उसका प्रतिपादन कर कुन्दकुन्द ने जैनदर्शन को ब्रह्माद्वैतवाद या विज्ञानाद्वैतवाद के निकट लाकर खड़ा नहीं किया, अपितु जैनदर्शन के द्वैताद्वैतयुग्मरूप द्वैतवाद का ही प्रकाशन किया है। द्वैत और अद्वैत दो का मेल द्वैत ही तो होता है। अपने उपर्युक्त वचनों से इस तथ्य को स्वीकार करते हुए भी कि (जैन) आगमों में भी द्रव्य और गुणपर्याय के अभेद का कथन मिलता है, मालवणिया जी ने यह कैसे लिख दिया कि "कुन्दकुन्द के सामने विज्ञानाद्वैत एवं ब्रह्माद्वैत का आदर्श था। उसका अनुकरण कर उन्होंने अपने प्रतिपादनों से जैनदर्शन और अद्वैतवाद का अन्तर बहुत कम कर दिया और जैनदर्शन को अद्वैतवाद के निकट रख दिया।" उनका यह कथन बड़े आश्चर्य और खेद का विषय है। क्योकि यह स्ववचन विरोधी है। दिगम्बर-आगमों के समान श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में संग्रहनय की अपेक्षा भी अद्वैतवाद माना गया है। आगम के आधार पर रचित माने गये तत्त्वार्थाधिगमभाष्य Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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