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अ०१०/प्र०४
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३३९ णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा॥ १६४॥ नि.सा.। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।
अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण सणं तम्हा॥ १६५॥ नि.सा.। अनुवाद-"व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशक है, इसलिए दर्शन परप्रकाशक है। व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक है, इसलिए दर्शन पर प्रकाशक है। निश्चयनय से ज्ञान स्वप्रकाशक है, अतः दर्शन स्वप्रकाशक है। निश्चयनय से आत्मा स्वप्रकाशक है, अत एव दर्शन स्वप्रकाशक है।"
यह बात स्वयं मालवणिया जी ने पूर्व में कुन्दकुन्द के ज्ञानविषयक स्वपरप्रकाशकत्व-मत की चर्चा करते हुए स्वीकार की है। इस प्रकार कुन्दकुन्द के अनुसार स्व के साथ ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध होने से ज्ञेयज्ञायक-अद्वैत तथा पर के साथ ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध होने से ज्ञेयज्ञायक-द्वैत, दोनों फलित होते हैं। अतः कुन्दकुन्द ने ज्ञेयज्ञायकद्वैताद्वैत-युग्म के रूप में भी द्वैतवाद का ही प्ररूपण किया है। निम्नलिखित गाथा में निश्चय और व्यवहारनयों के आश्रय से इसी द्वैत का प्रकाशन किया गया है
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं॥ १५९॥ नि.सा.। - अनुवाद-"व्यवहारनय से केवली भगवान् सब को जानते-देखते हैं, किन्तु निश्चयनय से आत्मा को ही जानते-देखते हैं।"
तथा कुन्दकुन्द ने जो द्रव्य-गुण-पर्याय या धर्म-धर्मी, गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी, कर्ता-कर्म, भोक्ता-भोग्य, ज्ञाता-ज्ञेय आदि के प्रदेशगत अभेद की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य के अद्वैतभाव (अखण्डता) का प्रकाशन किया है, वह उनकी अपनी दार्शनिक देन नहीं है, अपितु उन्होंने तत्त्वों के जिनोपदिष्ट अनेकान्तस्वरूप को ही प्रतिपादित किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने अनेकान्त का लक्षण इस प्रकार बतलाया है
"--- ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तत्वात्। तत्र यदेव तत्तदेवातत् यदेवैकं तदेवानेकं यदेव सत्तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः।"(समयसार / स्याद्वादाधिकार)।
अनुवाद-"ज्ञानमात्र आत्मवस्तु स्वयं अनेकान्त है। तथा जो वस्तु तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर-विरुद्ध शक्ति-युगल का प्रकाशित होना अनेकान्त कहलाता है।"
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