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________________ ३३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०४ द्रव्यों की सत्ता बतलाकर विजातीय द्वैत को भी मान्यता प्रदान की है। यह बात तो स्वयं मालवणिया जी ने स्वीकार की है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने छह द्रव्यों, नौ पदार्थों और सात तत्त्वों की श्रद्धा करनेवाले जीव को सम्यग्दृष्टि कहा है। यथाछद्दव्व णवपयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सि मुणेव्व ॥ १९ ॥ दं. पा. । शब्द के साथ बहुवचन का प्रयोग निम्नलिखित गाथा में कुन्दकुन्द ने 'जीव' कर आत्मा के बहुत्व का प्रतिपादन किया है— सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं ॥ ९० ॥ पं.का. । अधोवर्णित गाथा में कुन्दकुन्द ने सर्वज्ञ के अनुसार द्रव्य को गुणपर्यायों का आश्रय कहा है दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । पज्जा वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥ १० ॥ पं.का. । ये गाथाएँ इस बात की साक्षी हैं कि ब्रह्माद्वैत या विज्ञानाद्वैत के साथ कुन्दकुन्द का दूर का भी नाता नहीं है। वे सभी प्रकार से द्वैतवादी हैं । यद्यपि उन्होंने द्रव्यगुण- पर्याय या धर्म-धर्मी के प्रदेशगत अभेद की अपेक्षा निश्चयनय से प्रत्येक द्रव्य के अद्वैत १२८ अर्थात् अखण्डता या निरवयवता का प्रकाशन किया है, तथापि संज्ञादिभेद की अपेक्षा उनके पारस्परिक अन्यत्व का प्रकाशन कर व्यवहारनय से द्रव्यगत द्वैत का भी निरूपण किया है । इस प्रकार द्वैताद्वैत युग्म अर्थात् अनेकान्त के रूप में भी कुन्दकुन्द ने द्वैतवाद का ही प्रतिपादन किया है। तथा ब्रह्माद्वैत में ब्रह्म के अतिरिक्त एवं विज्ञानाद्वैत में ज्ञान के अतिरिक्त द्रव्यान्तर का अस्तित्व अस्वीकार किया गया है । इसलिए उनमें द्रव्यान्तर के साथ ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध घटित नहीं हो सकता, मात्र स्व के साथ ही घटित हो सकता है। अतः उक्त अद्वैतवादों में ज्ञेयज्ञायक - सम्बन्ध की अपेक्षा भी ऐकान्तिक अद्वैत मान्य है । किन्तु कुन्दकुन्द ने स्व और पर दोनों के साथ आत्मा का ज्ञेयज्ञायक - सम्बन्ध बतलाया है । यथा त्यजेत् त्यजेत्। तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापका दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपास्ति चित् ॥ १८३ ॥ समयसार - कलश । १२८. अद्वैतापि हि चेतना जगति चेदृग्ज्ञप्तिरूपं तत्सामान्य- विशेषरूप - विरहात्सास्तित्वमेव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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