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________________ अ०१०/प्र.४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३३५ ब्रह्म। अर्थात् सम्पूर्ण लोकालोक या ब्रह्माण्ड में एक ही आत्मा व्याप्त है। उसके अतिरिक्त अन्य किसी आत्मा या जड़ द्रव्य का अस्तित्व नहीं है। लोक में जो ये अनेक जीव और जड़ पदार्थ दिखाई देते हैं, वे सत्य नहीं हैं, अपितु जैसे अँधेरे में रज्जु में सर्प का अध्यास (भ्रम) होता है, वैसे ही अविद्या या माया के कारण उस एक अकेले ब्रह्म में अनेक जीवों और जड़ पदार्थों का अध्यास (भ्रम) होता है। इसी प्रकार उस एकमात्र सत् या द्रव्यभूत ब्रह्म में ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुणों का भी सद्भाव नहीं है तथा वह कूटस्थनित्य है अर्थात् उसमें परिणमन भी नहीं होता, जिससे वह पर्यायरहित भी है। ब्रह्माद्वैतवाद का यह स्वरूप है। वेदों, उपनिषदों और वेदान्तग्रन्थों में उसका यही रूप वर्णित है। यथा १. 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' (ऋग्वेद / १ / १६४/४६) = सत् या द्रव्य एक ही है, ज्ञानी उसका अनेकरूपों में वर्णन करते हैं। २. 'सदेव सोम्येदमन आसीदेकमेवाद्वितीयम्' (छान्दोग्योपनिषत् ६/२/१) = हे सोम्य! जो यह नानारूपात्मक जगत् दिखाई देता है, वह उत्पत्ति के पूर्व सत् , अखण्ड (निरवयव) और अद्वितीय ही था। ३. 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' (छान्दो./३/१४/१) = यह सम्पूर्ण चराचर जगत् एकमात्र ब्रह्म ही है। ४. 'आत्मैवेदं सर्वम्' (छान्दो./७/ २५ / २) = यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आत्मा ही है। ____५. 'ब्रह्मैवेदं विश्वम्' (मुण्डकोपनिषत् / २/२/११) = यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म ही ६. 'नेह नानास्ति किञ्चन' (बृहदारण्यकोपनिषत् ४/४/१९) = जगत् में एकत्व (अद्वैत) ही सत् है, नानात्व असत् है। "असति नानात्वे, नानात्वमध्यारोपयत्यविद्यया --- अविद्याध्यारोपण-व्यतिरेकेण नास्ति परमार्थतो द्वैतमित्यर्थः' (वही / शांकरभाष्य) = यत: नानात्व असत् है, इसलिए ब्रह्म अविद्या के द्वारा नानात्व का अध्यारोप करता है। अविद्या के द्वारा ही द्वैत का अध्यारोपण होता है, परमार्थतः द्वैत का अस्तित्व नहीं है। ७. 'इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते' (बृहदा. २/५/१९) = ब्रह्म मायाओं के द्वारा अनेक-रूप धारण कर लेता है। ८. "असर्पभूतायां रजौ सारोपवद् वस्तुन्यवस्त्वारोपोऽध्यारोपः। वस्तु सच्चिदानन्दानन्ताद्वयं ब्रह्म। अज्ञानादिसकलजडसमूहोऽवस्तु" (सदानन्दकृत वेदान्तसार) = Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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