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________________ ३३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०४ असर्पभूत रज्जु में सारोप के समान वस्तु में अवस्तु का आरोप होना अध्यारोप है। सत् , चित् , आनन्द, अनन्त तथा अद्वितीय ब्रह्म वस्तु (सत्) है तथा अज्ञानादि सकल जड़ पदार्थों का समूह अवस्तु (असत्) है। इन सूत्रों में एक मात्र ब्रह्म या आत्मतत्त्व को ही सत् या सत्य कहा गया है तथा उसकी संख्या भी एक ही बतलायी गयी है, शेष समस्त पुद्गलादि द्रव्यों के अस्तित्व को अस्वीकार कर उनकी प्रतीति को अविद्याजनित या मायाजन्य भ्रम कहा गया है। निम्नलिखित निरूपणों में ब्रह्म या आत्मा में गुणपर्यायरूप अनेकात्मकता का भी निषेध किया गया है ९. "नन्वनेकात्मकं ब्रह्म। यथा वृक्षोऽनेकशाख एवमनेकशक्तिप्रवृत्तियुक्तं ब्रह्म। अत एकत्वं नानात्वं चोभयमपि सत्यमेव। यथा वृक्ष इत्येकत्वं शाखा इति नानात्वम्। यथा च समुद्रात्मनैकत्वं फेनतरङ्गाद्यात्मना नानात्वम्। यथा च मृदात्मनैकत्वं घटशरावाद्यात्मना नानात्वम्। --- एवं च मृदादिदृष्टान्ता अनुरूपा भविष्यन्तीति।१२६ नैवं स्यात्। "मृत्तिकेत्येव सत्यम्' इति प्रकृतिमात्रस्य दृष्टान्ते सत्यत्वावधारणात्। वाचारम्भणशब्देन च विकारजातस्यानृतत्वाभिधानात्। दार्टान्तिकेऽपि 'ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यम्' इति च परमकारणस्यैवैकस्य सत्यत्वावधारणात्।" (ब्रह्मसूत्र-शाङ्करभाष्य / अध्याय २/ पाद १/ अधिकरण ६ / सूत्र १४)। अनुवाद-"शंकाकार कहता है-ब्रह्म तो अनेकात्मक है। जैसे वृक्ष अनेक शाखाओं से युक्त होता है, वैसे ही ब्रह्म अनेक शक्तियों और प्रवृत्तियों से युक्त होता है, इसलिए एकत्व और नानात्व दोनों सत्य हैं। यथा, वृक्ष की अपेक्षा एकत्व सत्य है, शाखाओं की अपेक्षा नानात्व। समुद्ररूप से एकत्व वास्तविक है, फेनतरंगादिरूप से अनेकत्व। मृत्तिकारूप से एकत्व यथार्थ है और घट-शरावादि-रूप से अनेकत्व। ऐसा होने पर ही मृत्तिका आदि के दृष्टान्त घटित होंगे। समाधान- ऐसा नहीं है। दृष्टान्त में 'मिट्टी ही सत्य है' इस वचन से प्रकृति १२६. "एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं प्रतिज्ञाय दृष्टान्तापेक्षायामुच्यते-'यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्' (छान्दो.६ /१/४) इति। एतदुक्तं भवति एकेन मृत्पिण्डेन परमार्थतो मृदात्मना विज्ञातेन सर्वं मृन्मयं घटशरावोदञ्चनादिकं मृदात्मकत्वाविशेषाद्विज्ञातं भवेत्। यतो वाचारम्भणं विकारो नामधेयं वाचैव केवलमस्तीत्यारभ्यते। विकारो घटः शराव उदञ्चनं चेति न तु वस्तुवृत्तेन विकारो नाम कश्चिदस्ति। नामधेयमानं ह्येतदनृतं मृत्तिकेत्येव सत्यमिति। एष ब्रह्मणो दृष्टान्त आम्नातः।" (ब्रह्मसूत्र-शांकरभाष्य / अध्याय २ / पाद १/ अधिकरण ६/ सूत्र १४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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