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३३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०४ ही प्रतिभास होता है। ब्रह्माद्वैत का भी यही अभिप्राय है कि संसार में ब्रह्मातिरिक्त कुछ भी नहीं है, अत एव सभी प्रतिभासों में ब्रह्म ही प्रतिभासित होता है। इन दोनों मतों के समन्वय की दृष्टि से आचार्य ने कह दिया कि निश्चयदृष्टि से केवलज्ञानी आत्मा को ही जानता है, बाह्य पदार्थों को नहीं (नि.सा./१५९)। ऐसा कह करके तो आचार्य ने जैनदर्शन और अद्वैतवाद का अन्तर बहुत कम कर दिया है और जैनदर्शन को अद्वैतवाद के निकट रख दिया है।" (न्या.वा.व./प्रस्ता./ पृ.१३४-१३५)।
यही मनगढन्त मत मालवणिया जी ने निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है-"आचार्य कुन्दकुन्द के समय में अद्वैतवादों की बाढ़ सी आ गई थी। औपनिषद् ब्रह्माद्वैत के अतिरिक्त शून्याद्वैत और विज्ञानाद्वैत जैसे वाद भी दार्शनिकों में प्रतिष्ठित हो चुके थे। तार्किक और श्रद्धालु दोनों के ऊपर उन अद्वैतवादों का प्रभाव सहज ही में जम जाता था। अत एव ऐसे विरोधी वादों के बीच जैनों के द्वैतवाद की रक्षा करना कठिन था। इसी आवश्यकता में से आ० कुन्दकुन्द के निश्चयप्रधान अध्यात्मवाद का जन्म हुआ है। जैन आगमों में निश्चयनय प्रसिद्ध था ही और निक्षेपों में भावनिपेक्ष भी मौजूद था। भावनिक्षेप की प्रधानता से निश्चयनय का आश्रय लेकर जैनतत्त्वों के निरूपण द्वारा आ० कुन्दकुन्द ने जैनदर्शन को दार्शनिकों के सामने एक नये रूप में उपस्थित किया। ऐसा करने से वेदान्त का अद्वैतानन्द साधकों को और तत्त्वजिज्ञासुओं को जैनदर्शन में ही मिल गया। निश्चयनय और भावनिक्षेप का आश्रय लेने पर द्रव्य और पर्याय, द्रव्य और गुण, धर्म और धर्मी, अवयव और अवयवी इत्यादि का भेद मिटकर अभेद हो जाता है। आ० कुन्दकुन्द को इसी अभेद का निरूपण परिस्थितिवश करना था, अतएव उनके ग्रन्थों में निश्चयप्रधान वर्णन हुआ है। और नैश्चयिक आत्मा के वर्णन में ब्रह्मवाद के समीप जैन आत्मवाद पहुँच गया है। आ० कुन्दकुन्दकृत ग्रन्थों के अध्ययन के समय उनकी इस निश्चय और भावनिक्षेपप्रधान दृष्टि को सामने रखने से कई गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं और आ० कुन्दकुन्द का तात्पर्य सहज ही में प्राप्त हो सकता है"। (न्या.वा.वृ. / प्रस्ता./ पृ.११८-११९)।
निरसन यह महान् आश्चर्य की बात है कि जैनदर्शन के इतने बड़े विद्वान् ने यह कैसे कह दिया कि कुन्दकुन्द ने जैनदर्शन को ब्रह्माद्वैतवाद या विज्ञानाद्वैतवाद के निकट लाकर खड़ा कर दिया है या उन्होंने आत्मा के निश्चयनयात्मक प्रतिपादन से जैनदर्शन और अद्वैतवाद का अन्तर बहुत कम कर दिया है! कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित द्रव्यगुण-पर्याय के या आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणों के निश्चयनयात्मक (सत्तागत) अद्वैत (अभेद) और वेदान्तदर्शन के ब्रह्माद्वैत या आत्माद्वैत में आकाश-पाताल का अन्तर है। अद्वैतवेदान्त में सत् या द्रव्य एक ही माना गया है और वह है एक अकेला
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