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________________ अ०१०/प्र०४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३३३ माननीय मालवणिया जी की तीसरी अवधारणा यह है कि कुन्दकुन्द तीसरीचौथी शती ई० में हुए उमास्वाति से परिवर्ती हैं, क्योंकि कुन्दकुन्दसाहित्य में वर्णित जैनदर्शन का स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित जैनदर्शन से विकसित है। अतः अब यह द्रष्टव्य है कि श्री मालवणिया जी ने तत्त्वार्थसूत्रगत जैनदर्शन की अपेक्षा कुन्दकुन्दसाहित्यगत जैनदर्शन के रूप को किन हेतुओं के आधार पर विकसित माना है? वे हेतु द्विविध हैं-१. कुन्दकुन्दसाहित्य में उन मतों की उपलब्धि होना, जिन्हें मालवणिया जी ने जैनेतर दर्शनों से अनुकृत माना है और २. प्रतिपाद्य विषय की विविधता तथा व्याख्या दृष्टान्तादि-कृत विस्तार पाया जाना। यहाँ पहले प्रथम-हेतुभूत उन मतों को, जिन्हें मालवणिया जी ने जैनेतर दर्शनों से अनुकृत बतलाया है, उद्धृत कर यह सिद्ध किया जा रहा है कि वे जैनेतरदर्शनों से अनुकृत नहीं, अपितु जिनोपदिष्ट ही हैं। कुन्दकुन्दसाहित्य में जैनेतर दर्शनों का अनुकरण नहीं २.१. कुन्दकुन्द द्वैताद्वैत के रूप में द्वैतवाद के ही प्रतिपादक मालवणिया जी का मत माननीय मालवणिया जी ने यह मत गढ़ा है कि कुन्दकुन्द ने ब्रह्माद्वैत और विज्ञानाद्वैत का अनुकरण कर जैनदर्शन को अद्वैतवाद के निकट लाकर खड़ा कर दिया है। वे लिखते हैं "आचार्य कुन्दकुन्द का श्रेष्ठ ग्रन्थ समयसार है। उसमें उन्होंने तत्त्वों का विवेचन नैश्चयिक दृष्टि का अवलम्बन लेकर किया है। खास उद्देश्य तो है आत्मा के निरुपाधिक शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन, किन्तु उसी के लिए अन्य तत्त्वों का भी पारमार्थिक रूप बताने का आचार्य ने प्रयत्न किया है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्य ने कहा है कि व्यवहारदृष्टि के आश्रय से यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणों में तथा ज्ञानादिगुणों में पारस्परिक भेद का प्रतिपादन किया जाता है, फिर भी निश्चयदृष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त है कि जो ज्ञाता है, वही आत्मा है या आत्मा ज्ञायक है, अन्य कुछ नहीं। (समयसार / ६-७)। इस प्रकार आचार्य की अभेदगामिनी दृष्टि ने आत्मा के सभी गुणों का अभेद ज्ञानगुण में कर दिया है --- इतना ही नहीं, किन्तु द्रव्य और गुण में अर्थात् ज्ञान और ज्ञानी में भी कोई भेद नहीं है, ऐसा प्रतिपादन किया है। --- आचार्य कुन्दकुन्द की अभेददृष्टि को इतने से भी सन्तोष नहीं हुआ। उनके सामने विज्ञानाद्वैत तथा आत्माद्वैत का आदर्श भी था। विज्ञानाद्वैतवादियों का कहना है कि ज्ञान में ज्ञानातिरिक्त बाह्य पदार्थों का प्रतिभास नहीं होता, स्व का Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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