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________________ ३३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र.४ में दिगम्बरीय मान्यताओं की उपस्थिति के संकेत नहीं हैं अथवा उनके खण्डन का प्रयास दृष्टिगोचर नहीं होता। तथा मालवणिया जी ने कुन्दकुन्द को दिगम्बरसाहित्य का आद्यकर्ता सिद्ध करने के लिए जो यह द्वितीय अवधारणा निर्मित की है कि कुन्दकुन्द के पूर्व तक दिगम्बरसम्प्रदाय के पास दिगम्बरमत के प्रतिपादक आगम नहीं थे, वह उपपन्न नहीं होती। क्योंकि प्रश्न उठता है कि यदि दिगम्बर-परम्परा के पास अपने आगम नहीं थे, तो उसने सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि के निषेध की मान्यताएँ कहाँ से ग्रहण की थीं, जिनके कारण उसकी सवस्त्रमुक्ति के प्रति अरुचि बढ़ती जा रही थी? आगमों का लिखित होना जरूरी नहीं है, वे श्रुतिपरम्परागत भी होते हैं और पहले वे श्रुतिपरम्परागत ही थे।२४अथवा यदि दिगम्बरपरम्परा के पास दिगम्बरत्व-प्रतिपादक आगम नहीं थे, तो वह कौन सा प्रामाणिक आदिपुरुष था, जिसके उपदेश से दिगम्बरसम्प्रदाय के बहुसंख्यक अनुयायियों ने स्त्रीमुक्ति आदि को आगमविरुद्ध मान लिया था?. मालवणिया जी की उक्त अवधारणा से इन प्रश्नों का समाधान नहीं होता, अतः वह युक्तियुक्त नहीं है। फलस्वरूप यह सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द के समय में दिगम्बर-सम्प्रदाय के पास भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट आगम उपलब्ध थे, जिनमें दिगम्बरमत का प्रतिपादन था। हाँ, यह अवश्य है कि कालप्रवाहवश बारह अंगों और चतुर्दशपूर्यों के ज्ञान का क्रमशः लोप होते-होते उन सबके एक-एकदेश का ही ज्ञान कुन्दकुन्द को उपलब्ध हो पाया था। तिलोयपण्णत्ती, हरिवंशपुराण, धवला इत्यादि में कहा गया है कि लोहाचार्य ऐसे अन्तिम आचार्य थे, जिन्हें आचारांग के सम्पूर्ण तथा शेष ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वो के एकदेश का ज्ञान था। उनके पश्चाद्वर्ती सभी आचार्यों को बारह अंगों और चौदह पूर्वो के एक-एक देश का ही ज्ञान प्राप्त था। उनमें गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि और कुन्दकुन्द शामिल हैं। उन्होंने उसी के आधार पर अपने ग्रन्थों की रचना की थी।१२५ १२४. "तदो सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसो आइरियपरंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो।" धवलाटीका / पु.१ / १,१,१ / पृ. ६८। १२५. क- "तदो सुभद्दो, जसभद्दो, जसबाहू, लोहज्जो त्ति एदे चत्तारि वि आइरिया आयारंगधरा सेसंग-पुव्वाणमेगदेसधरा य। तदो सव्वेसिमंग-पुव्वाणमेगदेसो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो।" धवलाटीका / षट्खण्डागम / पु.१ / १,१,१ / पृ.६७-६८। ख-पूर्वाचार्येभ्य एतेभ्यः परेभ्यश्च वितन्वतः। एकदेशागमस्यायमेकदेशोऽपदिश्यते॥ १/६६॥ हरिवंशपुराण । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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