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________________ अ०१० / प्र० ४ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३३१ में रहा कि उसकी अरुचि को निरन्तर बढ़ते जाने का अवसर मिल सका। मालवणिया जी के इस मन्तव्य से इस निर्णय को बल मिलता है कि उनके मतानुसार बोटिकमत से दिगम्बरमत के विकसित होने का काल ईसा की द्वितीय शताब्दी माना जा सकता है। श्री मालवणिया जी के इन वक्तव्यों से उनके द्वारा पोषित तीन अवधारणाओं का पता चलता है— पहली तो यह कि दिगम्बर जैन-सम्प्रदाय बोटिक - सम्प्रदाय का विकसितरूप है और उसकी उत्पत्ति ईसा की द्वितीय शताब्दी में मानी जा सकती है। दूसरी यह कि दिगम्बरमत- प्रतिपादक ग्रन्थों के आद्य प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द हैं। उनके पूर्व दिगम्बर-सम्प्रदाय श्वेताम्बर - आगमों को अरुचिपूर्वक मानता था। तीसरी यह कि कुन्दकुन्द उमास्वाति के बाद अर्थात् ईसा की तीसरीचौथी शती के पश्चात् हुए थे । मान्य विद्वान् की इन तीन अवधारणाओं में से प्रथम अवधारणा की मिथ्यारूपता का प्रकाशन पूर्व अध्यायों में किया जा चुका है । यथा १. द्वितीय अध्याय में अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों और अनेक आधुनिक श्वेताम्बर विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में स्त्रीमुक्ति-निषेधक दिगम्बरों को ही बोटिक कहा है, यापनीयों को नहीं। तथा बोटिक शिवभूति की मान्यताओं से भी सिद्ध होता है कि उसने यापनीयमत का प्रवर्तन नहीं किया था, अपितु श्वेताम्बरमत छोड़कर परम्परागत दिगम्बरमत का वरण किया था। इस प्रकार दिगम्बर - सम्प्रदाय से भिन्न किसी बोटिक - सम्प्रदाय का अस्तित्व ही मिथ्या सिद्ध हो जाता है, अतः उससे दिगम्बरसम्प्रदाय के विकसित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जैनेतर साहित्य एवं पुरातात्त्विक प्रमाणों से सिद्ध किया जा चुका है कि ऐतिहासिक दृष्टि से दिगम्बरजैनमत सिन्धुसभ्यता से भी प्राचीन है। २. बोटिक - सम्प्रदाय को यापनीय-सम्प्रदाय मानकर उससे दिगम्बर-सम्प्रदाय के विकसित होने की कल्पना मुनि कल्याणविजय जी ने की है, उसका अनौचित्य द्वितीय अध्याय में प्रदर्शित किया जा चुका है। ३. द्वितीय अध्याय में यह भी निरूपित किया गया है कि आवश्यकनिर्युक्ति और विशेषावश्यकभाष्य में बोटिक - सम्प्रदाय के नाम से दिगम्बर - सम्प्रदाय की चर्चा की गई है और दिगम्बरीय सिद्धान्तों का खण्डन किया गया है। तृतीय अध्याय में बतलाया गया है कि दशवैकालिकसूत्र में आचार्य शय्यम्भव ने 'जं पि वत्थं वा पायं वा' आदि गाथाओं में परिग्रह की दिगम्बरमान्य परिभाषा का निरसन किया है। अतः मालवणिया जी का यह कथन भी सत्य नहीं है कि प्राचीन निर्युक्तियों एवं भाष्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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