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________________ ३३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०४ मालवणिया जी ने न्यायावतारवार्तिकवृत्ति की प्रस्तावना (पृ. ११८ ) में यह भी लिखा है कि " वाचक उमास्वाति के तत्त्वार्थ की रचना का प्रयोजन मुख्यतः संस्कृत भाषा में सूत्रशैली के ग्रन्थ की आवश्यकता की पूर्ति करना था । तब आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की रचना का प्रयोजन कुछ दूसरा ही था । उनके सामने तो एक महान् ध्येय था। दिगम्बर-सम्प्रदाय की उपलब्ध जैन आगमों के प्रति अरुचि बढ़ती जा रही थी । किन्तु जब तक ऐसा ही दूसरा साधन आध्यात्मिक भूख को मिटानेवाला उपस्थित न हो, तब तक प्राचीन जैन आगमों का सर्वथा त्याग संभव न था । आगमों का त्याग कई कारणों से करना आवश्यक हो गया था, १२३ किन्तु दूसरे प्रबल समर्थ साधन के अभाव में वह पूर्णरूप से शक्य न था । इसी को लक्ष्य में रखकर आ० कुन्दकुन्द ने दिगम्बर - सम्प्रदाय की आध्यात्मिक भूख की माँग के लिए अपने अनेक ग्रन्थों की प्राकृत भाषा में रचना की।" ( न्या.वा.वृ./ प्रस्ता. / पृ.११८) । मालवणिया जी के इस कथन से ऐसा प्रतीत तो नहीं होता कि उनके अनुसार दिगम्बर-सम्प्रदाय की स्थापना कुन्दकुन्द ने की थी, भले ही स्त्रीमुक्तिनिषेध आदि दिगम्बरीय मान्यताओं का उल्लेख उनके ग्रन्थों में सर्वप्रथम मिलता हो । किन्तु यह स्पष्ट है कि वे दिगम्बर-सम्प्रदाय को बोटिक - सम्प्रदाय का विकसित रूप मानते हैं । अर्थात् विकसित होने के लिए यदि अधिक से अधिक पचास वर्ष का समय आवश्यक माना जाय (निर्ग्रन्थसंघ से श्वेताम्बर - सम्प्रदाय का विकास वीरनिर्वाण से ६२ वर्ष बाद ही हो गया था), तो मालवणिया जी के अनुसार दिगम्बर - सम्प्रदाय की उत्पत्ति बोटिक - सम्प्रदाय की उत्पत्ति (वीरनिर्वाण सं० ६०९ = ई० ८२ ) से लगभग पचास वर्ष बाद (द्वितीय शती ई० में) मानी जा सकती है। मालवणिया जी ने अपने उपर्युक्त वक्तव्य ( न्या. वा.वृ./ प्रस्ता. / पृ. ११८) में यह मन्तव्य प्रकट किया है कि "दिगम्बर - सम्प्रदाय की उपलब्ध जैन आगमों के प्रति अरुचि बढ़ती जा रही थी, क्योंकि उनमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिकवलाहार, आपवादिक मांसाशन आदि के उल्लेख थे, जो दिगम्बर - सम्प्रदाय के अनुकूल न थे, १२३ इसलिए कुन्दकुन्द ने सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध करनेवाले दिगम्बरमतप्रतिपादक ग्रन्थों की रचना की ।" इससे यह सूचित होता है कि सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि मान्यताओं के प्रति अरुचि रखनेवाला दिगम्बर-सम्प्रदाय कुन्दकुन्द के बहुत पहले अस्तित्व में आ गया था और वह कुन्दकुन्द के पूर्व इतने दीर्घ समय तक अस्तित्व १२३. 'खासकर वस्त्रधारण, केवली - कवलाहार, स्त्रीमुक्ति, आपवादिक मांसाशन इत्यादि के उल्लेख जैन आगमों में थे, जो दिगम्बरसम्प्रदाय के अनुकूल न थे।" न्यायावतारवार्तिकवृत्ति/ प्रस्तावना / पादटिप्पणी / पृष्ठ ११८ । 44 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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