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चतुर्थ प्रकरण मालवणिया जी के दार्शनिक विकासवाद का निरसन
मालवणिया जी की तीन अवधारणाएँ पं० दलसुख जी मालवणिया ने स्वकल्पित दार्शनिक-विकासवाद के आधार पर कुन्दकुन्द को उमास्वाति (तीसरी-चौथी शताब्दी ई०) के बाद का आचार्य बतलाया है। वे न्यायावतारवार्तिकवृत्ति की प्रस्तावना में लिखते हैं
"वाचक उमास्वाति का समय पं० श्री सुखलाल जी ने तीसरी-चौथी शताब्दी होने का अंदाज किया है। आ० कुन्दकुन्द के समय में अभी विद्वानों का एकमत नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द का समय जो भी माना जाय, किन्तु तत्त्वार्थ और आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थगत दार्शनिक विकास की ओर यदि ध्यान दिया जाय तो वा० उमास्वाति के तत्त्वार्थगत जैनदर्शन की अपेक्षा आ० कुन्दकुन्द के ग्रन्थगत जैनदर्शन का रूप विकसित है, यह किसी भी दार्शनिक से छिपा नहीं रह सकता। अत एव दोनों के समयविचार में इस पहलू को भी यथायोग्य स्थान अवश्य देना चाहिए। इसके प्रकाश में यदि दूसरे प्रमाणों का विचार किया जायगा, तो संभव है दोनों के समय का निर्णय सहज में हो सकेगा।" (न्या.वा.वृ. / प्रस्ता./ पृ.१०३)।
पश्चात् माननीय मालवणिया जी ने 'क्या बोटिक दिगम्बर हैं?' नामक लेख में लिखा है-"बोटिक मूलतः दिगम्बर नहीं थे, क्योंकि स्त्रीमुक्ति के निषेध की चर्चा हमें सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द में मिलती है। यद्यपि उनका समय विवादास्पद है, फिर भी मेरा अपना यह निश्चित मत है कि आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य उमास्वाति के पूर्व नहीं हुए हैं। इसको सिद्ध करने का प्रयत्न मैंने अपनी न्यायावतारवार्तिकवृत्ति की प्रस्तावना में दोनों आचार्यों के जैन दर्शन-सम्बन्धी मन्तव्यों की तुलना करके किया है। इस समग्र चर्चा से दो फलित निकलते हैं-प्रथम तो यह कि श्वेताम्बरग्रन्थों में बोटिक नाम से जिस सम्प्रदाय का उल्लेख हुआ है, वह दिगम्बर-सम्प्रदाय से भिन्न है और जिसे अन्यत्र यापनीय के नाम से पहचाना जाता है। दूसरे, दिगम्बर-सम्प्रदाय जो स्त्रीमुक्ति का निषेध करता है, वह या तो बोटिकों का ही परवर्ती विकास है, या फिर उससे प्रारंभिक श्वेताम्बराचार्य परिचित नहीं थे। क्योंकि प्राचीन नियुक्तियों एवं भाष्यों से ऐसी मान्यता की उपस्थिति के न तो कोई संकेत ही मिलते हैं और न उसके खण्डन का ही कोई प्रयास देखा जाता है।"१२२ १२२. जैन विद्या के आयाम / ग्रन्थाङ्क २ (Aspect of Jainology, Vol. II) 'पं. बेचरदास दोशी
स्मृति ग्रन्थ' / पृष्ठ ७३।
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