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________________ ३२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०३ "इस प्रकार आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज द्वारा खोज निकाली गई इस लघु पुस्तिका से इन ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईस्वी सन् ७१३ में विद्यमान थे। वे भट्टारक श्री जिनचन्द्र के शिष्य थे, उन्होंने रामगिरि पर्वत पर बाल्यावस्था में भट्टारक जिनचन्द्र के पास पंच महाव्रतों की दीक्षा ग्रहण की थी और कालान्तर में इन्हीं आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने दिगम्बरपरम्परा में श्रावकों के लिये यज्ञोपवीत के साथ-साथ षट्कर्मों का प्रचलन प्रारम्भ किया। "प्रतिष्ठापाठ नामक इस पुस्तिका का आलेखन आज से लगभग १०३ वर्ष पूर्व विक्रम सम्वत् १९४० में पंडित महिपाल द्वारा गणेश नामक ब्राह्मण से करवाया गया। इस प्रति का लेखन किस प्राचीन प्रति के आधार पर करवाया गया, इस सम्बन्ध में केवल इतना ही उल्लेख है "ई मरजाद प्रतिष्ठा हुई, सो आगम के अनुसार लिखी "इस उल्लेख से यही प्रकट होता है कि प्रतिष्ठा-सम्बन्धी प्राचीन पत्रों के आधार पर ही सम्भवतः इस पुस्तिका का आलेखन करवाया गया होगा। यह प्रतिष्ठापाठ नाम की लघु पुस्तिका स्थान-स्थान पर अतिशयोक्तियों से ओत-प्रोत है, किसी एक प्रतिष्ठा पर ३८ करोड़ रुपया, किसी दूसरी पर २४ करोड़ रुपया, तो किसी पर १९ करोड़ रुपया, किसी पर ३६ करोड़ रुपया, किसी पर ३५ करोड़ रुपया आदि व्यय किये जाने का उल्लेख है। सब मिलाकर बीस प्रतिष्ठाओं पर लगभग साढ़े चार अरब रुपये खर्च किये जाने का इस लघु पुस्तिका में उल्लेख है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द द्वारा करवाई गई प्रतिष्ठाओं और उनके तत्त्वावधान में तीर्थयात्रा के लिये निकाले गये सुविशाल संघ पर जो धन व्यय हुआ वह इस राशि में सम्मिलित नहीं है। "इतना सब कुछ होते हुए भी इसमें उल्लिखित अनेक भट्टारकों के नाम और उनका काल ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक प्रतीत होता है। इनके नाम एवं काल की पुष्टि 'इंडियन ऐण्टिक्यूरी' के आधार पर तैयार की गई नन्दीसंघ की पट्टावली एवं कतिपय शिलालेखों से भी होती है। इसी कारण यह लघु पुस्तिका इतिहासविदों से गहन शोध की अपेक्षा करती है। आशा है शोधप्रिय इतिहासज्ञ इस सम्बन्ध में अग्रेतन शोध के माध्यम से आचार्य कुन्दकुन्द के समय एवं उनके द्वारा श्रावकों के लिये प्रारम्भ किये गये यज्ञोपवीत आदि विधानों पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।" (जै.ध.मौ.इ./ भा.४ / पृ.२१-२८)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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