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अ०१०/प्र०३
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३२३ "इस लघु पुस्तिका में आचार्य श्री कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में एक सुनिश्चित संवत् का उल्लेख किया गया है कि वे विक्रम संवत् ७७० में (तदनुसार ईस्वी सन् ७१३ एवं वीर निर्वाण संवत् १२४०) में हुए। इस प्रकार के निश्चित संवत् का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द के सम्बन्ध में जैन वाङ्मय में, श्वेताम्बर अथवा दिगम्बरपरम्परा की पट्टावलियों आदि में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता।
__ "इसी प्रकार जैन श्रावक के लिये तीन सूत्र की यज्ञोपवीत धारण करना, त्रिकाल सन्ध्या, गायत्री कर्म, अंगन्यासादिकर्म, प्रतिष्ठा, कलशाभिषेक, आदि जिनका कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा के आगमों अथवा आगमिक ग्रन्थों में कहीं भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, उन सब कर्मकांडों का ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता, उन सब ब्राह्मणिक कर्मकांडों का प्रचलन आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने ही दिगम्बर-परम्परा में प्रारम्भ किया, इस बात का उल्लेख भी स्पष्ट रूप से इस लघु पुस्तिका में है। इस दृष्टि से भी इस प्रतिष्ठापाठ नाम का हस्तलिखित पुस्तिका का एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर पौराणिक ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख है कि अहर्निश धर्माराधन में निरत रहनेवाले माहणवर्ग की पहिचान के लिये भरत चक्रवर्ती ने रत्नविशेष से यज्ञोपवीत की भाँति की तीन रेखाएँ प्रत्येक माहण के दक्षिण स्कन्ध से वाम वक्षस्थल और वाम पृष्ठभाग तक अंकित कर दी थीं। यज्ञोपवीत जैसा यह चिह्न भरत चक्रवर्ती ने इस उद्देश्य से किया था कि जो माहण वस्तुतः धर्माराधन में, अध्ययन-अध्यापन में ही निरत रहते थे और भरत चक्रवर्ती द्वारा इस प्रकार के नितान्त धर्मनिष्ठ माहणों के लिये प्रदान की गई अशन, पान, आवास, परिधान आदि की सुविधाओं का उपभोग दूसरे छद्म व्यक्ति न कर सकें। माहणों के लिये इस प्रकार की व्यवस्था भरत चक्रवर्ती द्वारा की गई थी, न कि किसी भी तीर्थंकर महाप्रभु अथवा किसी धर्माचार्य द्वारा। चतुर्विध तीर्थ की स्थापना तीर्थंकर प्रभु द्वारा की गई थी। उसमें श्रावक वर्ग भी सम्मिलित था। चतुर्विध तीर्थ की स्थापना के समय ऋषभादि महावीरान्त चौबीसों तीर्थंकरों में से किसी भी तीर्थंकर महाप्रभु ने श्रावक वर्ग के लिये त्रिकाल सन्ध्या, कलशाभिषेक, प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा अथवा यज्ञोपवीत का विधान किया हो, इस प्रकार का एक भी उल्लेख सम्पूर्ण आगमिक वाङ्मय में कहीं नाम मात्र के लिये भी दृष्टिगोचर नहीं होता। श्रमण भगवान् महावीर के समय में भी श्रावकों ने यज्ञोपवीत धारण किया हो, इस प्रकार का एक भी उल्लेख कहीं उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार की स्थिति में इस लघु पुस्तिका के एतद्-विषयक उपरि वर्णित उल्लेख से यह आत्यन्तिक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आता है कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने ही दिगम्बर-परम्परा में यज्ञोपवीत एवं उपर्युक्त छहों कर्मों का विधान किया।
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