________________
३२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०३
सत्य वचन का प्रकाश करहु तदि देवी गर्जना रूप तीन बोल प्रकट बोली आदि दि. - सरु करयात देवी कही तुम बारा बरस तलक झगड़ा करो हमने एक सत्यार्थ था सो ई कह्या । तदि श्वेताम्बरी के सैकरूं शिष्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य भये । अर प्रथम यात्रा श्री कुन्दकुन्दाचार्य जी का संघ का लोग करता भया । अर श्री नेमिनाथ भगवान् की प्रतिष्ठा करी । अर सकलगिर प्रतिष्ठित भया ।
"तदि मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगण श्री कुन्दकुन्दाचार्य का वंश बड़े नन्दि मुनिराज कूं आचार्य पद दीना सो उनकी आमनाय सकल संख्या गायत्री कर्म अंग न्यासादिक कर्म, प्रतिष्ठा, कलशाभिषेक, पूजा, दान, यात्रा, इत्यादि छहूं कर्मन की स्थापना करी सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप तीन वलय का सूत्र की यज्ञोपवीत श्रावक लोग कूं दीनी । अर जिनमार्ग का प्रकाश करि र आप वापनारा नाम नगर के वन में आये सब श्रावकन कूँ शिष्या (शिक्षा) दे करि आप सन्यास धारि करि पाँचवे स्वर्ग गये। विशेष अधिकार बड़े ग्रन्थन से जाणा लेणा यहाँ अधिकार मात्र वर्णन किया है ।"
प्रतिष्ठापाठ शीर्षकवाली इस लघु पुस्तिका के उपरिलिखित उद्धरण से निम्नलिखित चार तथ्य प्रकाश में आते हैं
“१. दिगम्बर-परम्परा के महान् प्रभावक आचार्य श्री कुन्दकुन्द विक्रम संवत् ७७० में विद्यमान थे ।
" २. उनके गुरु का नाम आचार्य श्री जिनचन्द्र था ।
" ३. आचार्य जिनचन्द्र रामगिरि पर्वत पर रहते थे ।
" ४. श्रमण भगवान् महावीर के धर्मसंघ के एक अंग दिगम्बरसम्प्रदाय में ब्राह्मणों ही के समान श्रावकों के लिये त्रिकाल सन्ध्या, (गायत्री कर्म अंगन्यासादि कर्म), कलशाभिषेक, प्रतिष्ठा, पूजा, दान और यात्रा ये छ कर्म और सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के प्रतीक रूपी तीन वलय के सूत्र की यज्ञोपवीत धारण करने की अनिवार्यरूपेण परमावश्यक प्रथा आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा प्रचलित की गई।
" आचार्य श्री कुन्दकुन्द आचार्य श्री जिनचन्द्र के शिष्य थे इस बात की पुष्टि इंडियन ऐन्टीक्यूरी के आधार पर विद्वानों द्वारा निर्णीत की गई नन्दीसंघ की पट्टावली से भी होती है। उक्त पट्टावली में चौथे आचार्य का नाम जिनचन्द्र और पाँचवें आचार्य का नाम कुन्दकुन्दाचार्य उल्लिखित है । ११९
११९. क - जैन धर्म का मौलिक इतिहास / भाग ३ / पृष्ठ १३६ व १३७।
ख- नन्दिसंघ की पट्टावली / जैन धर्म का मौलिक इतिहास / भाग २ / पृष्ठ ७५४ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org