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३१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०३
है, उसमें दिगम्बरपरम्परा के अनेक भट्टारकों एवं आचार्यों के समय के सम्बन्ध में प्रकाश डालने के साथ दिगम्बरपरम्परा के महान् आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के जीवनवृत्त पर निम्नलिखित रूप में विस्तृत विवरण उपलब्ध हुआ, जो इतिहास में अभिरुचि रखनेवाले विज्ञों के लिये यहाँ अक्षरशः उद्धृत किया जा रहा है।
संवत् ७७० के साल वारानगर में श्री कुन्दकुन्दाचार्य मुनिराज भये तिनका व्याख्यान करजे छे । कुन्दसेठ कुन्दलता सेठाणी के पाँचवाँ स्वर्ग को देव चय करि गर्भ में आये ति दिन सुं सेठ का नांव प्रसिद्ध हुआ । काहै ते पुष्पादिक की वर्षा का कारण से नव महिना पीछे पुत्र का जन्म भया ता समय में श्वेताम्बरन की आम्नाय विसेस होय रही, दिगम्बर सम्प्रदाय उठ गई । एक जिनचन्द मुनि रामगिर पर्वत में रहे ताका दशॆन सेठजी करवा कर सोभाग्य पुत्र आठ वर्ष का हुआ भर उठीने श्री आचार्य का आयुकर्म नजीके आया वे ॥ कुमार नित्य आवे छा सो पूर्वला कारण तै कुन्दकुन्द कुमार दीक्षा लेता भया । आचार्य तो देवलोक पधारे अर कुन्दकुन्द मुनिराज का मार्ग विशेष जान्या नहीं सो अपने गुरु स्थापना के निकट ही ध्यान करता भया सोयन का ध्यान के प्रभाव तै सिंह व्याघ्रादिक सांत भाव कूँ प्राप्त भया श्री स्वामी ऐसा ध्यान प्रगट भया तीन ज्ञान अगोचर श्री सीमंदर स्वामी पूर्वले विदेह क्षेत्र का राजा तिन का ध्यान स्वामी ने सरू कर्या । आदि समवसरण की रचना विधिपूर्वक चित्त रूपी महल में बनाया वा के बीच गंधकुटी रच दीनी अर वारा सभा सहित रचना बनाय सिंहासन उपर च्यार अंगुल अन्तरीक श्री महाराजि श्री सीमंदर स्वामी कूँ विराजमान देख करि तत्काल श्री कुन्दकुन्द यतिराज नमस्कार करता भया । बस ही समय में विदेह क्षेत्र में श्री भगवान् मुनिराज कूँ धर्मवृद्धि दीनी तदि चक्रवर्त्यादिक महंत पुरुषा कै बडो विस्मय उत्पन्न हुओ अवार कोई इन्द्रदेव मनुष्य में कोई भी आया नहीं अर स्वामी धर्मवृद्धि दीनी ता का कारण कह्या । तदि महापद्म चक्रधर आदि सब ही राजा उठ करि स्वामी कूँ नमस्कार करि पूछते भये भो सर्वज्ञ देव! या धर्मवृद्धि आप कुणा कूँ दीनी वचन सुणि करि स्वामी दिव्य ध्वनि से व्याख्यान किया हे महापद्म ! भरत क्षेत्र का आर्य खण्ड में रामगिर पर्वत के उपरि कुन्दकुद मुनिराज तिष्ठे हैं। उनमें अचावार मन वचन काया की सुधता करि र नमस्कार कीयो तदि धर्मवृद्धि दीनी है। ऐसा स्वामी का वचन सुण करि सभी सभा के लोगन के उर में आश्चर्य उपज्यो। भो भगवन्! आपकी दिव्य ध्वनि पहली भले प्रकार हम सुनी हती ज्यो भरतादिक दश क्षेत्र में धर्म का मार्ग नाहीं अर पाखंडी बहुत है । जिन धर्म का नाम मात्र जानेगा नाहीं । अघ वीपरीत मार्ग में चालेगा, पाखंडी लोगों की मान्यता बहुत होयगी । गुरुद्रोही लोक हो जायगा । स्व-स्व कल्पित ग्रन्थ बाचेंगे । अनेक पाखण्ड रचेंगे। जिनराज का धर्म आज्ञा समान कूँ कहुं दीखेगा। पाखंडी का मठ जागि जागि धावेंगे । व्यन्तर आदिक
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