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________________ अ०१० / प्र०३ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३१७ कि आचार्य जी ने उस कथा का उल्लेख करनेवाली पुस्तिका की प्राप्ति को ही खोज मान लिया। कथा की प्रामाणिकता को खोजने का प्रयास नहीं किया। यह तो देखा ही नहीं कि हाथ क्या लगा है ? रजत या सीपी ? अस्तु । इसका निर्णय आगे हो जायेगा और आचार्य जी ने उक्त कथा की प्रामाणिकता की परीक्षा किये बिना ही उसे प्रामाणिक क्यों मान लिया इसका खुलासा भी आगे हो जायेगा। इस हेतु उक्त कथा पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। आचार्य श्री हस्तीमल जी ने अपनी इस खोज की महिमा का बखान श्री गजसिंह राठौड़ द्वारा लिखाये गये 'भूले बिसरे ऐतिहासिक तथ्य' नामक लेख में कराया है और उसे अपने ग्रन्थ जैनधर्म का मौलिक इतिहास (भाग ४) में उद्धृत किया है। उसे यहाँ ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ । उसमें पण्डित महिपाल द्वारा लिखित प्रतिष्ठापाठ में वर्णित कुन्दकुन्द - कथा भी उद्धृत है । ' भूले बिसरे ऐतिहासिक तथ्य लेखक : गजसिंह राठौड़ "सागर के गहन तल में जिस प्रकार कई अनमोल मोती, बहुमूल्य रत्न और भाँति-भाँति की निधियाँ छिपी होती हैं, ठीक उसी प्रकार जैन इतिहास के आत्यन्तिक महत्त्व के ऐतिहासिक तथ्य विस्मृति के गर्भ में छुपे पड़े हैं। जिस प्रकार साहसी गोताखोर गहरी डुबकियाँ लगाकर अथाह समुद्र के तल से समय-समय पर उन अमूल्य निधियों को खोज निकालते हैं, ठीक उसी प्रकार विस्मृति के गहन गर्भरूपी समुद्र में छिपे इतिहास के अलभ्य ऐतिहासिक तथ्यों को कोई बिरले ही शोध-प्रिय विद्वान् प्रकाश में लाने में सफलकाम होते हैं । " इस युग के महान् अध्यात्मयोगी जैनाचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज ने सदियों से विलुप्त माने जाते रहे जैन - इतिहास को गहन शोध के अनन्तर जैन जगत् के समक्ष रक्खा है। ईस्वी सन् १९८५, तदनुसार वीर निर्वाण संवत् २५११-१२ के भोपालगढ़ चातुर्मासावास - काल में आचार्यश्री ने एक ऐसी ऐतिहासिक कृति को खोज निकाला है, जो दिगम्बरपरम्परा के महान् आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के समय के सम्बन्ध में अद्यावधि चली आ रही विवादास्पद गुत्थी को सुलझाने में सम्भवतः पर्याप्त मार्गदर्शिका बन सकती है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न अभिमत हैं, जो प्रायः सभी एकमात्र अनुमानों पर ही आधारित हैं । आचार्य श्री कुन्दकुन्द के सुनिश्चित समय को बतानेवाला अद्यावधि एक भी प्रामाणिक उल्लेख अथवा कोई ठोस आधार उपलब्ध नहीं है। शोधरुचि आचार्यश्री ने प्राचीन हस्तलिखित पत्रों के पुलिन्दे में से 'अथ प्रतिष्ठापाठ लिख्यते' शीर्षकवाली जो एक प्रति खोज निकाली Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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