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३१६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०३ हम हरिवंशपुराण में वर्णित स्त्रीमुक्ति आदि के निषेध को प्रामाणिक इसलिए मानते हैं कि वह आगम के अनुकूल है। किन्तु पट्टावलियों का सम्बन्ध आगम से नहीं है, इतिहास से है और ऐतिहासिक प्रमाणों से हरिवंशपुराण की पट्टावली प्रामाणिक सिद्ध नहीं होती, अतः हम उसे अप्रामाणिक मानते हैं।
हम देखते हैं कि 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' की नन्दिसंघीय पट्टावली में कुन्दकुन्द का जो ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में अस्तित्व दर्शाया गया है, वह साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों से पुष्ट होता है, जब कि हरिवंशपुराण की पट्टावली से फलित होनेवाले काल की पुष्टि साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों से नहीं होती। अतः 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी', में प्रकाशित पट्टावली ही प्रामाणिक है, हरिवंशपुराण की नहीं। इस प्रकार आचार्य हस्तीमल जी का कुन्दकुन्द को वीर नि० सं० १००० (४७३ ई०) के आसपास का सिद्ध करनेवाला हेतुवाद निरस्त हो जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने अस्तित्व से ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध तथा ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध को ही मण्डित किया था।
द्वितीय (संशोधित) मत : कुन्दकुन्दकाल ८वीं शती ई.
आचार्य हस्तीमल जी ने सन् १९८३ में बड़े जोर-शोर से हरिवंशपुराण की पट्टावली को प्रामाणिक घोषित कर उसके आधार पर कुन्दकुन्द का स्थितिकाल वीर नि० सं० १००० (४७३ ई०) के लगभग निर्धारित किया था। अभी उसकी स्याही भी नहीं सूख पायी थी कि उन्होंने चार साल बाद ही सन् १९८७ में उसे निरस्त कर दिया
और एक अत्यन्त अर्वाचीन पण्डित महिपाल द्वारा विक्रम सं० १९४० (१८८३ ई०) में मन से गढ़ी गई कथा को हरिवंशपुराण और 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' की पट्टावलियों से भी अधिक प्रामाणिक मानकर आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल उसमें लिखे अनुसार विक्रम संवत् ७७० (७१३ ई०) आँख बन्द करके स्वीकार कर लिया। उसकी प्रामाणिकता पर रंचमात्र भी शंका प्रकट नहीं की। अन्य स्रोतों से उसकी प्रामाणिकता की परीक्षा करने का शोधकार का धर्म भी नहीं निभाया। पण्डित महिपाल को सर्वज्ञ के समान आप्तपुरुष मानकर उसके वचन को एक परम श्रद्धालु शिष्य की तरह चुपचाप स्वीकार कर लिया और महान् दिगम्बर-परम्परा के इतिहास को एक अत्यन्त अप्रामाणिक पुरुष के हाथ का खिलौना बना दिया। उस मनगढन्त कथा की हस्तलिखित पुस्तिका प्राप्त होने को आचार्य हस्तीमल जी की एक महान् खोज कहकर विज्ञापित किया गया। उसे एक ऐसी क्रान्तिकारी खोज बतलाया गया जैसे आचार्य जी ने पारसमणि ढूँढ़ लिया हो या मंगलग्रह पर जीवन की खोज कर ली हो। आश्चर्य तो यह है
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