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________________ अ०१०/प्र०३ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३१५ प्रवृत्ति दर्शनीय है। पूर्व में यह दर्शाया जा चुका है कि उन्होंने 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित नन्दिसंघीय पट्टावली को भट्टारक-परम्परा के उद्भव, प्रसार एवं उत्कर्षकाल के विषय में युक्तिसंगत एवं सर्वजन-समाधानकारी निर्णय पर पहुँचानेवाली माना है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसमें दर्शाया गया पट्टधरों का पट्टकाल सत्य है। यदि उसे सत्य न माना जाय, तो पट्टावली भट्टारक-परम्परा के उदयकाल, प्रसारकाल एवं उत्कर्षकाल का युक्तिसंगत निर्णय नहीं करा पायेगी। अर्थात् उक्त पट्टावली भट्टारकपरम्परा के उद्भवकाल, प्रसारकाल एवं उत्कर्षकाल का युक्तिसंगत निर्णय तभी करा सकती है, जब उसमें दर्शाये गये भद्रबाहु (द्वितीय) के पट्टकाल विक्रम संवत् ४ से २५, गुप्तिगुप्त के पट्टकाल वि० सं० २६ से ३५, माघनन्दी के पट्टकाल वि० सं० ३६ से ३९, जिनचन्द्र के पट्टकाल वि० सं० ४० से ४८, कुन्दकुन्द के पट्टकाल वि० सं० ४९ से १०० और इसी तरह सभी पट्टधरों के पट्टकाल को सत्य माना जाय। किन्तु , पट्टावली में प्रदर्शित पट्टकाल के आधार पर पट्टावली को भट्टारकपरम्परा के उद्भवकाल, प्रसारकाल और उत्कर्षकाल का युक्तिसंगत निर्णय करानेवाली मानते हुए भी, आचार्य हस्तीमल जी उसमें दर्शाये गये कुन्दकुन्द के पट्टकाल को सही नहीं मानते, अपितु हरिवंशपुराण की पट्टावली के आधार पर कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल वीर नि० सं० १००० (४७३ ई०) के आसपास मानते हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' की पट्टावली पट्टधरों के पट्टकाल का सही प्रदर्शन न करने के कारण भट्टारक-परम्परा के उद्भव, प्रसार एवं उत्कर्ष-काल का युक्तिसंगत एवं सर्वजन-समाधानकारी निर्णय नहीं करा सकती। इस प्रकार आचार्य हस्तीमल जी ने इण्डियन ऐण्टिक-पट्टावली में निर्दिष्ट कुन्दकुन्द के पट्टकाल की वास्तविकता को अस्वीकार कर अपने ही निर्णीतार्थ की जड़ पर कुल्हाड़ी चला दी है, जिससे वे अनभिज्ञ हैं। किन्तु , वे हरिवंशपुराण की पट्टावली को इसलिए प्रामाणिक नहीं मानते कि उनकी दृष्टि में हरिवंशपुराणकार प्रामाणिक (सत्य कथन करनेवाले) हैं। यदि वे हरिवंशपुराणकार को प्रामाणिक मानते, तो उन्होंने जो स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध किया है, उसे भी प्रामाणिक (सत्य) मानते, किन्तु उनके द्वारा ऐसा किये जाने की कल्पना तो स्वप्न में भी नहीं की जा सकती। इससे सिद्ध है कि वे हरिवंशपुराणकार को प्रामाणिक नहीं मानते। तब उन्होंने हरिवंशपुराणकारकृत पट्टावली को प्रामाणिक क्यों कहा? इसका उत्तर स्पष्ट है कि उसे प्रामाणिक घोषित कर देने से वे जो यह सिद्ध करना चाहते हैं कि कुन्दकुन्द अर्वाचीन हैं, वीर नि० सं० १००० (४७३ ई०) के आसपास के हैं, उसकी सिद्धि होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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