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________________ ३१४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ प्रथमस्तेषु सुभद्रोऽभयभद्रोऽन्योऽपपरोऽपि जयबाहुः । लोहार्यो ऽन्त्यश्चैतेऽष्टादशवर्षयुगसङ्ख्या ॥ ८३॥ ३. नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली में लोहाचार्य को नन्दिसंघीय बतलाया गया है, किन्तु हरिवंशपुराण की पट्टावली में उनका विनयन्धर आदि पुन्नाटसंघीय आचार्यों के आदिपुरुष के रूप में उल्लेख है । (ह.पु. ६६ / २२ - ३३, जै. सि. को . १ / ३२६) । अ०१० / प्र०३ ४. नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली में लोहाचार्य के पश्चात् अर्हद्बलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि के नाम हैं । इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में लोहाचार्य के अनन्तर विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्यों के नाम देने के बाद अर्हद्बलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि के नामों का उल्लेख है। किन्तु हरिवंशपुराण की पट्टावली में विनयन्धर आदि चार आचार्यों के बाद केवल अर्हद्बलि का नाम है, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि के नाम अनुपलब्ध हैं। तथा आश्चर्य की बात यह है कि पट्टावली में पुन्नाटसंघी जयसेन को, जो स्वयं हरिवंशपुराणकार जिनसेन के परदादा गुरु थे, षट्खण्डागम एवं कर्मप्रकृतिश्रुत का ज्ञाता कहा गया है, ११८ जब कि षट्खण्डागम के उपदेष्टा और कर्त्तारूप में प्रसिद्ध धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि को पट्टावली में कहीं स्थान ही नहीं दिया गया । क्रमांक १८ पर श्रीधरसेन का नाम है, पर वे षट्खण्डागम के उपदेष्टा धरसेन से भिन्न हैं, क्योंकि उनके साथ पुष्पदन्त और भूतबलि के नाम नहीं हैं। ५. ये सभी पट्टावलियाँ अपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें उच्छेद से बचे हुए श्रुत को ग्रन्थारूढ़ करनेवाले धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, गुणधर, कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, पूज्यपाद देवनन्दी जैसे महान् आचार्यों के नाम नहीं हैं । 'श्रुतावतार' इसका अपवाद है। इन पारस्परिक भिन्नताओं के कारण उक्त पट्टावलियों से फलित होने वाला आचार्यों का पट्टकाल भी परस्पर भिन्न हो जाता है, अतः वे भी अप्रामाणिक सिद्ध होती हैं। तथा अपूर्ण होने के कारण तो वे अप्रामाणिक हैं ही। फलस्वरूप उनके आधार पर आचार्य हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल जो वीर नि० सं० १००० (४७३ ई०) अनुमानित किया है, वह प्रामाणिक नहीं है। आचार्य हस्तीमल जी का 'मूले कुठाराघातः ' आचार्य हस्तीमल जी की अपने ही निर्णयों के मूल पर कुठाराघात करने की Jain Education International ११८. अखण्ड-षट्खण्डमखण्डितस्थितिः समस्तसिद्धान्तमधत्त योऽर्थतः ॥ ६६ / २९ ॥ दधार कर्मप्रकृतिं श्रुतिं च यो जिताक्षवृत्तिर्जयसेनसद्गुरुः ॥ ६६ / ३० ॥ For Personal & Private Use Only हरिवंशपुराण । www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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