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________________ अ०१० / प्र०३ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३१३ ग्रन्थों के रचनाकाल (प्रथम शताब्दी ई०) से नहीं होती। इसलिए हरिवंशपुराण की पट्टावली तथा उससे साम्य रखनेवाली अन्य पट्टावलियाँ प्रामाणिक नहीं हैं। इसी कारण नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली भी अप्रामाणिक है । पूर्व में 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में छपी पट्टावली से तथा सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थसूत्र, मूलाचार, भगवती - आराधना आदि ग्रन्थों एवं मर्करा, नोणमंगल तथा श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में उपलब्ध प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी है और यह काल पट्टावली में लिखित पट्टकाल को बन्द आँखों से सत्य मानकर नहीं, अपितु उस पट्टकाल के औचित्य को सिद्ध करनेवाली युक्तियों, मर्करा और नोणमंगल के अभिलेखों में वर्णित यथार्थ घटनाओं एवं तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, भगवती आराधना और मूलाचार में उपलब्ध कुन्दकुन्द के यथार्थ वचनों के आधार पर सिद्ध किया गया है। हरिवंशपुराणादि की पट्टावलियों में वर्णित पट्टकालों से कुन्दकुन्द का जो अस्तित्व काल फलित होता है, वह पट्टकालों के औचित्य की परीक्षा किये बिना पट्टावलीकार के वचनों को यथावत् सत्य मान लेने पर ही सत्य माना जा सकता है । औचित्य की परीक्षा करने पर तथा सर्वार्थसिद्धि आदि साहित्यिक प्रमाणों एवं मर्करा आदि के अभिलेखों की कसौटी पर कसने से वह मिथ्या सिद्ध हो जाता है । - इस अपेक्षा से विचार करने पर षट्खण्डागम के सम्पादक डॉ० हीरालाल जी जैन का यह कथन युक्तिसंगत सिद्ध होता है कि “ श्रुतपरम्परा के सम्बन्ध में 'हरिवंशपुराण' के कर्त्ता से लगाकर 'श्रुतावतार' के कर्त्ता इन्द्रनन्दी तक सब आचार्यों ने धोखा खाया है।" (ष.ख. / पु. १ / प्रस्ता. / पृ. २५) । आचार्य हस्तीमल जी ने नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली के पट्टकाल को हरिवंशपुराण, तिलोयपण्णत्ती, श्रुतावतार आदि के आधार पर गलत सिद्ध किया है, किन्तु इन ग्रन्थों में उल्लिखित पट्टकाल सही क्यों है, इसका कोई कारण नहीं बतलाया । इन ग्रन्थों की पट्टावलियों में बतलाई गई बातें भी अनेकत्र परस्पर विरुद्ध हैं। जैसे १. हरिवंशपुराण की पट्टावली में लोहाचार्य के पश्चात् क्रमशः विनयन्धर, गुप्तऋषि, गुप्तश्रुति, शिवगुप्त एवं अर्हद्बलि के नाम हैं, जबकि धवला (पु.१ / पृ.६७, पु.९ / पृ.१३०१३२) और तिलोयपण्णत्ती (४/१४९० - १५०४ ) की पट्टावलियों में इनका अभाव है। २. सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु ( भद्रबाहु द्वितीय) और लोहार्य (लोहाचार्य) इन चार आचारांगधरों का समग्रकाल तिलोयपण्णत्ती, धवला तथा हरिवंशपुराण की पट्टावलियों में ११८ वर्ष दिया गया है, किन्तु इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में केवल १८ वर्ष है तथा नामों में भी भिन्नता है। यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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