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तृतीय प्रकरण
आचार्य हस्तीमल जी के दो मतों का निरसन
प्रथम मत : कुन्दकुन्दकाल ५वीं शती ई. . बीसवीं सदी ई० के श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों की सर्वथा उपेक्षा कर तथा दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी में उद्धृत नन्दिसंघ की पट्टावली को अन्य दृष्टियों से प्रामाणिक मानते हुए भी पट्टकाल की दृष्टि से अप्रामाणिक मानकर अन्य पट्टावलियों के आधार पर षट्खण्डागम के रचनाकाल और कुन्दकुन्द के स्थितिकाल के निर्णय का प्रयत्न किया है। उन्होंने नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली को तो सर्वथा अप्रामाणिक घोषित कर दिया है और तिलोयपण्णत्ती, धवलाटीका तथा इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में प्रदत्त पट्टावलियों को प्रामाणिक स्वीकार करते हुए भी एकान्ततः दिगम्बराचार्य जिनसेनकृत हरिवंशपुराण की पट्टावली को सर्वोपरि प्रतिष्ठित कर, उसके आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द का स्थितिकाल वीर नि० सं० १००० (ई० सन् ४७३) के आसपास आकलित किया है। वे अपना हेतुवाद प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं
"सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि हरिवंशपुराण में दी गई आचार्य-परम्परा की पट्टावली अपने-आप में परिपूर्ण एवं सभी दृष्टियों से अन्य उपलब्ध पट्टावलियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक है। वीर नि० सं० १ से ६८३ तक और दूसरे शब्दों में केवली गौतम से लेकर अन्तिम आचारांगधर लोहार्य तक की ६८३ वर्ष की अवधि में जिनसेन ने २८ आचार्यों के नाम दिये हैं, जो धवला, तिलोयपण्णत्ती, श्रुतावतार आदि सभी प्रामाणिक ग्रन्थों द्वारा समर्थित हैं। लोहाचार्य के पश्चात् वीर नि० सं० ६८३ से वीर नि० सं० १३१० (शक सं० ७०५)११७ तक कुल मिलाकर ६२७ वर्षों में जिनसेन ने ३१ (स्वयं को मिलाकर ३२) आचार्यों का होना बताया है, जो सभी दृष्टियों से सुसंगत प्रतीत होता है। यद्यपि जिनसेन ने विनयंधर से लेकर आचार्य अमितसेन तक ३१ आचार्यों का पृथक्-पृथक् आचार्यकाल नहीं दिया है, तथापि लोहाचार्य के पश्चात् वीर नि० सं० ६८३ से स्वयं द्वारा हरिवंशपुराण की समाप्ति का समय शक सं० ७०५, तदनुसार वीर नि० सं० १३१० देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि लोहार्य से लेकर उन स्वयं (जिनसेन) तक की ६२७ वर्षों की अवधि में ३१ आचार्य हुए। इस ६२७ वर्ष के समुच्चय काल को ३१ आचार्यों में विभक्त किया जाय, तो मोटे
११७. हरिवंशपुराण ६६/ ५२-५३ ।
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