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३०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०२ लिखने में उन्होंने वीरसंवत् का उपयोग किया होगा। जान पड़ता है कि सामान्यरूप से लिखे हुए विक्रमवर्षों को पिछले पट्टावली-लेखकों ने निर्वाणाब्द मानकर धोखा खाया है और इस भ्रमपूर्ण मान्यता को यथार्थ मानकर पिछले इतिहास-विचारक भी वास्तविक इतिहास को बिगाड़ बैठे हैं। (अ.भ.म./पृ. ३४५-३४६)।" (कसायपाहुड/ भा.१/ प्रस्ता./ पृ. ५७)।
और इस प्रकार मुनि जी ने वीरनिर्वाण-संवत् पर विक्रमसंवत् का आरोप कर कुन्दकुन्द को पट्टावलियों के आधार पर विक्रम की छठी शताब्दी में उत्पन्न सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। वे लिखते हैं
"श्रुतावतार के उपर्युक्त (अ.भ.म./ पृ.३४६ पर उल्लिखित) कथन से भी यही सिद्ध होता है कि अंगज्ञान की प्रवृत्ति जो वीर सं० ६८३ (विक्रम संवत् २१३) तक चली थी, उसके बाद अनेक आचार्यों के पीछे कुन्दकुन्द हुए थे। हमारे इस विवेचन से विचारकगण समझ सकेंगे कि कुन्दकुन्दाचार्य विक्रम की छठी सदी के प्रथम चरण में स्वर्गवासी हुए थे और उनके बाद विक्रम की सातवीं सदी के मध्यभाग में दिगम्बरग्रन्थ पुस्तकों पर लिखकर व्यवस्थित किये गये थे।" (अ.भ.म./ पृ.३४६)।
निरसन तिलोयपण्णत्ती आदि में वीरनिर्वाणानुसार ही कालगणना
इसका निरसन करते हुए पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"मुनि जी त्रिलोकप्रज्ञप्ति को कुन्दकुन्द से प्राचीन मानते हैं, और त्रिलोकप्रज्ञप्ति में वीरनिर्वाण से बाद की जो कालगणना दी है, वह हम पहले लिख आये हैं। बाद के ग्रन्थकारों
और पट्टावलीकारों ने भी उसी के आधार पर कालगणना दी है। ६८३ वर्ष की परम्परा भी वीरनिर्वाण-संवत् के आधार पर है। नन्दिसंघ की पट्टावली में भी जो कालगणना दी है, वह भी स्पष्टरूप में वीरनिर्वाण-संवत् के आधार पर दी गई है। मालूम होता है मुनि जी ने इनमें से कुछ भी नहीं देखा। यदि देखा होता तो उन्हें यह लिखने का साहस न होता कि "प्राचीन दिगम्बराचार्यों ने कहीं भी प्राचीन घटनाओं का उल्लेख वीरसंवत् के साथ किया हो, यह हमारे देखने में नहीं आया।" आश्चर्य है कि मुनि जी जैसे इतिहासलेखक कुछ भी देखे बिना ही दूसरी परम्परा के सम्बन्ध में इस प्रकार की कल्पनाओं के आधार पर भ्रम फैलाने की चेष्टा करते हैं और स्वयं वास्तविक इतिहास को बिगाड़कर पिछले इतिहास-विचारकों पर वास्तविक इतिहास को बिगाड़ने का लांछन लगाते हैं। किमाश्चर्यमतः परम्!" (कसायपाहुड / भा.१ / प्रस्ता./ पा.टि./ पृ.५८)।
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