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________________ अ०१०/प्र०२ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३०७ मुनि जी का उसे कोई अर्वाचीन संवत् मानना अथवा ताम्रपत्र को जाली कहना भी नितान्त असत्य सिद्ध होता है। तथा मुनि जी का यह कथन भी सर्वथा मिथ्या है कि भट्टारककाल विक्रम की सातवीं सदी के बाद शुरू हुआ था। अष्टम अध्याय में अनेक प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध किया गया है कि भट्टारकपरम्परा का उदय १२ वीं शताब्दी ई० में हुआ था। अतः मर्कराताम्रपत्र में कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख कुन्दकुन्द की प्राचीनता सिद्ध करनेवाला एक बलिष्ठ अभिलेखीय प्रमाण है। यह ताम्रपत्र तो जाली नहीं है, किन्तु हम देख रहे हैं कि मुनि जी के सारे हेतु शत-प्रतिशत जाली हैं। कोई भी पट्टावली वीर नि. सं. के अनुसार रचित नहीं स्व० पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने कसायपाहुड (भाग १) की प्रस्तावना (पृ.५७) में लिखा है कि "जिस प्रकार मुनि (कल्याणविजय) जी ने मर्करा के उक्त ताम्रपत्र को जाली कहने का अतिसाहस किया है, उसी प्रकार उन्होंने एक और भी अतिसाहस किया है। मुनि जी लिखते हैं “पट्टावलियों में कुन्दकुन्द से लोहाचार्य पर्यन्त के सात आचार्यों का पट्टकाल इस क्रम से मिलता है१. कुन्दकुन्दाचार्य ५१५-५१९ २. अहिबल्याचार्य ५२०-५६५ ३. माघनन्द्याचार्य ५६६-५९३ ४. धरसेनाचार्य ५९४-६१४ ५. पुष्पदन्ताचार्य ६१५-६३३ ६. भूतबल्याचार्य ६३४-६६३ ७. लोहाचार्य ६६४-६८७ "पट्टावलीकार उक्त वर्षों को वीरनिर्वाणसम्बन्धी समझते हैं, परन्तु वास्तव में ये वर्ष विक्रमीय होने चाहिये, क्योंकि दिगम्बरपरम्परा में विक्रम की बारहवीं सदी तक बहुधा शक और विक्रम संवत् लिखने का ही प्रचार था। प्राचीन दिगम्बराचार्यों ने कहीं भी प्राचीन घटनाओं का उल्लेख वीरसंवत् के साथ किया हो, यह हमारे देखने में नहीं आया, तो फिर यह कैसे मान लिया जाय कि उक्त आचार्यों का समय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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