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३०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०२
मर्करा-ताम्रपत्र में विक्रम की ७वीं सदी के बाद प्रचलित
'भटार' शब्द का प्रयोग मुनि जी ने लिखा है-"विक्रम की नवीं सदी के पहले किसी भी शिलालेख, ताम्रपत्र या ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य का नामोल्लेख न होना भी यही सिद्ध करता है कि वे उतने प्राचीन व्यक्ति न थे, जितना कि अधिक दिगम्बर विद्वान् समझते हैं। यद्यपि मर्करा के एक ताम्रपत्र में, जो कि संवत् ३८८ का लिखा हुआ माना जाता है, कुन्दकुन्द का नामोल्लेख है, तथापि हमारी इस मान्यता में कुछ भी आपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि उस ताम्रपत्र में उल्लिखित तमाम आचार्यों के नामों के पहले 'भटार' (भट्टारक) शब्द लिखा गया है। इससे सिद्ध है कि यह ताम्रपत्र भट्टारककाल में लिखा गया है, जो विक्रम की सातवीं सदी के बाद शुरू होता है। इस दशा में ताम्रपत्रवाला संवत् कोई अर्वाचीन संवत् होना चाहिए अथवा यह ताम्रपत्र ही जाली होना चाहिए।" (अ.भ.म./ पा.टि. / पृ. ३०६)।
निरसन आदरसूचक 'भटार' शब्द का प्रचलन प्राचीन अष्टम अध्याय में सोदाहरण प्रतिपादित किया गया है कि दिगम्बरजैन साहित्य और शिलालेखों में भटार या भट्टारक शब्द तीन अर्थों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त हुआ है-१.आदर, २.विद्वत्तादिगुण तथा ३.अजिनोक्त सवस्त्र-साधुलिंगी दिगम्बरजैन धर्मगुरु। मर्करा-ताम्रपत्रलेख में भटार शब्द आदर-सूचनार्थ प्रयुक्त हुआ है। और इसके रूपान्तर परमभट्टारक शब्द का प्रयोग ४३३ ई० (गुप्तकाल वर्ष ११३) के मथुराशिलालेख में गुप्तनरेश कुमारगुप्त के नाम के पूर्व भी किया गया है। यथा-"परमभट्टारक-माहाराजाधिराज-श्रीकुमारगुप्तस्य ---।" (जै.शि.सं./मा.च./भा.२/ ले.क्र.९२)। इसलिए मुनि जी का यह कथन सर्वथा मिथ्या है कि 'भटार' या 'भट्टारक' शब्द के प्रयोग का प्रचलन विक्रम की सातवीं सदी के बाद भट्टारककाल में शुरू हुआ था। मर्करा-ताम्रपत्र में उत्कीर्ण संवत् ३८८ को इतिहासज्ञों ने शकसंवत् ही माना है, क्योंकि दक्षिण भारत में यही प्रचलित था। शक सं० ३८८ का समकालीन ईसवी सन् ४६६ है और आदर सूचित करने के लिए भट्टारक शब्द का प्रयोग कुमारगुप्त के समय ४३३ ई० में भी होता था। अतः मर्करा-ताम्रपत्र में भटार शब्द के प्रयोग से उसमें उल्लिखित संवत् के शकसंवत् होने में कोई बाधा नहीं आती। इसलिए
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