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अ०१०/प्र०२
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ३०५ स्पष्ट है कि चैत्य पहले से ही होते आये हैं। यंत्र, तंत्र, मंत्र के कारण दान देने की प्रवृत्ति एक ऐसी प्रवृत्ति है, जो किसी सम्प्रदाय के उद्भव से सम्बन्ध न रखकर पंचमकाल के मनुष्यों की नैसर्गिक रुचि को द्योतित करती है। अतः इनके आधार से भी कुन्दकुन्द को विक्रम की छठी शताब्दी का विद्वान् नहीं माना जा सकता। हाँ, रयणसार ग्रन्थ से जो कुछ उद्धरण दिये गये हैं, वे अवश्य विचारणीय हो सकते थे। किन्तु उसकी भाषा शैली आदि पर से प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी प्रवचनसार की भूमिका में उसके कुन्दकुन्दकृत होने पर आपत्ति की है। ऐसा भी मालूम हुआ है कि रयणसार की उपलब्ध प्रतियों में भी बड़ी असमानता है। अतः जब तक रयणसार की कोई प्रामाणिक प्रति उपलब्ध न हो और उसकी कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों के साथ एकरसता प्रमाणित न हो, तब तक उसके आधार पर कुन्दकुन्द को छठी शताब्दी का विद्वान् नहीं माना जा सकता।" (कसायपाहुड/ प्रस्ता./ पा.टि./ पृ.५७)।
पूर्वोक्त पट्टावलीय, अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाण कुन्दकुन्द को ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी का सिद्ध करते हैं, अतः उनके बोधप्राभृत आदि ग्रन्थों में चर्चित उपर्युक्त विषय निर्विवादरूप से उसी समय से सम्बन्ध रखते हैं। हम देख चुके हैं कि भगवान् महावीर के निरपवाद अचेलमार्ग में वस्त्रपात्रादि ग्रहण करने की शिथिलाचारी प्रवृत्तियाँ अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के बाद से ही शुरू हो गई थी और तभी से अस्तित्व में आये श्वेताम्बरसम्प्रदाय तथा पूर्ववर्ती दिगम्बर (निर्ग्रन्थ) सम्प्रदाय दोनों में शुद्धाचारी और शिथिलाचारी उभय प्रवृत्तियोंवाले साधुओं का अस्तित्व रहा है। शिथिलाचार जब एक बार शुरू हो गया, तो उसमें क्रमशः वृद्धि होती गई, जिसका चरमरूप चैत्यवासी और मठवासी साधुओं के रूप में प्रतिफलित हुआ। आचार्य कुन्दकुन्द ने शिथिलाचारी जैन साधुओं के पार्श्वस्थ आदि पाँच भेद बतलाये हैं और कहा है कि उनका अस्तित्व अनादिकालीन है। (देखिए अष्टम अध्याय का चतुर्थ प्रकरण)। इस प्रकार शिथिलाचार ईसापूर्व शताब्दियों से चला आ रहा था। कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में उसी का वर्णन किया है। अतः उक्त वर्णन से वे विक्रम की छठी शताब्दी के सिद्ध नहीं होते। कुन्दकुन्द के समय (ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी) में कुछ जैन मुनियों में कृषि-वाणिज्य आदि कर्म करने की प्रवृत्तियाँ प्रचलित हो चुकी थीं। इसका प्रमाण यही है कि उनका उल्लेख उस समय लिखे गये लिंगप्राभृत में मिलता है। अतः उक्त प्रवृत्तियों का विकास विक्रम की पाँचवीं शती के बाद मानकर कुन्दकुन्द का अस्तित्व उसी समय में मानना पूर्ववर्णित पट्टावलीय, साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों की अवहेलना करना है।
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