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________________ ३०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०२ उल्लेख किया, तो उससे कुन्दकुन्द पौराणिककाल के कैसे हो सकते हैं? प्रत्युत उन्हें उसी समय का विद्वान् मानना चाहिए जिस समय तमिल में उक्त भावना प्रबल थी।" (कसायपाहुड / भा.१ / प्रस्ता./ पा.टि./ पृ.५६-५७)। वैदिकपरम्परा में भगवान् वासुदेव (श्रीकृष्ण) विष्णु के अवतार माने गये हैं। ४०० से १०० ई० पू० में रचित महाभारत में उनसे सम्पूर्ण विश्व एवं समस्त सन्तति (प्राणियों) की उत्पत्ति बतलाई गई है।१६ इससे भी प्रमाणित होता है कि विष्णु ईसापूर्व काल से ही सृष्टि के कर्ता माने जाते रहे हैं। अतः समयसार में उपर्युक्त लोकमत का उल्लेख होने से कुन्दकुन्द का ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में स्थित होना असिद्ध नहीं होता। षट्प्राभृतों में परवर्ती चैत्यादि एवं शिथिलाचार का वर्णन मुनि जी कहते हैं कि कुन्दकुन्द ने बोधप्राभृत (गाथा ६-८ और १०) में 'आयतन' 'चैत्यगृह' और 'प्रतिमा' की चर्चा की है, अतः वे 'चैत्यवास' काल के पहले के नहीं हो सकते। भावप्राभृत की १६२वीं गाथा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन किया है। ये विक्रम की पाँचवीं सदी के बाद में प्रचलित होने वाले विषय हैं। लिंगप्राभृत की गाथा ९, १०, १६ और २१वीं में साधुओं की आचारविषयक जिन शिथिलताओं की निन्दा की है, वे शिथिलताएँ विक्रमीय पाँचवीं सदी के बाद साधुओं में प्रविष्ट हुई थीं। इसी प्रकार रयणसार में साधुओं के द्वारा किये जानेवाले अनेक धर्मविरुद्ध कार्यों का वर्णन है, जो उन्हें विक्रम की छठी सदी से पूर्व का विद्वान् सिद्ध नहीं करते। (अ.भ.म./पा.टि./पृ.३०३-३०६)। निरसन चैत्यगृह-प्रतिमादि ईसापूर्वकालीन, शिथिलाचार अनादि इसके उत्तर में पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"जिनालय और जिनबिम्ब के निर्माण की प्रथा चैत्यवास से सम्बन्ध नहीं रखती। 'चैत्यवास चला' इससे ही ११६.भगवान् वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः। स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च ॥ २५६ ॥ शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम्। यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः॥ २५७॥ असच्च सदसच्चैव यस्माद् विश्वं प्रवर्तते। सन्ततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः॥ २५८ ॥ महाभारत / आदिपर्व/ प्रथम अध्याय। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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