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________________ अ०१०/प्र०२ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २९९ नियमसार में वि. सं. ५१२ में रचित 'लोकविभाग' का उल्लेख मुनि जी लिखते हैं-"प्रसिद्ध दिगम्बर जैन विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने नियमसार की एक गाथा खोज निकाली है, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द ने लोकविभाग परमाग्रम का उल्लेख किया है।११३ यह 'लोकविभाग' ग्रन्थ संभवतः सर्वनन्दी आचार्य की कृति है, जो कि वि० सं० ५१२ में रची गयी थी। इससे भी कुन्दकुन्द छठी सदी के ग्रन्थकार प्रतीत होते हैं।" (अ.भ.म./पा.टि./ पृ.३०३)। निरसन 'लोकविभागों में यह पद लोकानुयोग-विषयक प्रकरणसमूह का वाचक, स्वतन्त्र ग्रन्थ का नाम नहीं इस हेतु का निरसन पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने किया है। वे जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश नामक ग्रन्थ में लिखते हैं-"नियमसार की उस गाथा में प्रयुक्त हुए लोयविभागेसु पद का अभिप्राय सर्वनन्दी के उक्त लोकविभाग से नहीं है और न हो सकता है, बल्कि बहुवचनान्त पद होने से वह 'लोकविभाग' नाम के किसी एक ग्रन्थविशेष का भी वाचक नहीं है। वह तो लोकविभाग-विषयककथनवाले अनेक ग्रन्थों अथवा प्रकरणों के संकेत को लिए हुए जान पड़ता है और उसमें खुद कुन्दकुन्द के लोयपाहुड, संठाणपाहुड जैसे ग्रन्थ तथा दूसरे लोकानुयोग अथवा लोकालोक के विभाग को लिए हुए करणानुयोग-सम्बन्धी ग्रन्थ भी शामिल किये जा सकते हैं। और इसलिए लोयविभागेसु इस पद का जो अर्थ कई शताब्दियोंपीछे के टीकाकार पद्मप्रभ ने लोकविभागाभिधानपरमागमे ऐसा एकवचनान्त किया है, वह ठीक नहीं है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./पृ.६०१)। इस पर पं० नाथूराम जी प्रेमी का कथन है कि लोयविभागेसु में "बहुवचन का प्रयोग इसलिए भी इष्ट हो सकता है कि लोकविभाग के अनेक विभागों या अध्यायों में उक्त भेद देखने चाहिए।" इसका निरसन करते हुए मुख्तार जी लिखते हैं- "ग्रन्थकार कुन्दकुन्दाचार्य का यदि ऐसा अभिप्राय होता तो वे लोयविभाग-विभागेसु ऐसा पद रखते, तभी उक्त आशय घटित हो सकता था। परन्तु ऐसा नहीं है, और इसलिए प्रस्तुत पद के विभागेसु पद का आशय यदि ग्रन्थ के विभागों या अध्यायों का लिया जाता है, तो ग्रन्थ का नाम लोक रह जाता है, लोकविभाग नहीं और उससे प्रेमी ११३. चउदहभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउब्भेदा। एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥ १७॥ नियमसार। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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