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________________ ३०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०२ जी की सारी युक्ति ही लौट जाती है, जो लोकविभाग ग्रन्थ के उल्लेख को मानकर की गई है।" इसके उत्तर में प्रेमी जी कहते हैं-"लोयविभागेसु णादव्वं' पाठ पर जो यह आपत्ति की गई है कि वह बहुवचनान्त पद है, इसलिये किसी लोकविभाग-नामक एक ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता, तो इसका एक समाधान यह हो सकता है कि पाठ को लोयविभागे सुणादव्वं इस प्रकार पढ़ना चाहिये। 'सु' को 'णादव्वं' के साथ मिला देने से एकवचनान्त 'लोयविभागे' ही रह जायगा और अगली क्रिया 'सुणादव्वं' (सुज्ञातव्यं) हो जायगी। पद्मप्रभ ने भी शायद इसीलिए उसका अर्थ लोकविभागाभिधानपरमागमे किया है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ पृ.६०५)। मुख्तार जी इस समाधान का निरसन करते हुए लिखते हैं-"इस पर मैं इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि प्रथम तो मूल का पाठ जब लोयविभागेसु णादव्वं इस रूप में स्पष्ट मिल रहा है और टीका में उसकी संस्कृत छाया जो लोकविभागेसु ज्ञातव्यं दी है उससे वह पुष्ट हो रहा है तथा टीकाकार पद्मप्रभ ने क्रियापद के साथ 'सु' का 'सम्यक्' आदि कोई अर्थ व्यक्त भी नहीं किया, मात्र विशेषणरहित द्रष्टव्यः पद के द्वारा उसका अर्थ व्यक्त किया है, तब मूल के पाठ की, अपने किसी प्रयोजन के लिए अन्यथा कल्पना करना ठीक नहीं है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./पृ. ६०५-६०६)। मुख्तार जी ने अपने मत के समर्थन में दूसरा तर्क यह दिया है कि "उपलब्ध 'लोकविभाग' में, जो कि ('उक्तं च' वाक्यों को छोड़कर) सर्वनन्दी के प्राकृत लोकविभाग का ही अनुवादित संस्कृतरूप है, तिर्यंचों के उन चौदह भेदों के विस्तारकथन का कोई पता भी नहीं, जिसका उल्लेख नियमसार की उक्त १७ वी गाथा में किया गया है।" (जै. सा.इ.वि.प्र./ पृ.६०१)। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि नियमसार की उपर्युक्त गाथा में सर्वनन्दीकृत 'लोकविभाग' का उल्लेख नहीं है। पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री भी ऐसा ही मानते हैं। उन्होंने लिखा है-"वर्तमान 'लोकविभाग' में अन्यगति के जीवों का तो थोड़ा बहुत वर्णन प्रसङ्गवश किया भी गया है, किन्तु तिर्यंचों के चौदह भेदों का तो वहाँ नाम भी दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः यदि नियमसार में लोकविभाग नाम के परमागम का उल्लेख है, तो वह कम से कम वह 'लोकविभाग' तो नहीं है, जिसकी भाषा का परिवर्तन करके संस्कृत 'लोकविभाग' की रचना की गई है और जो शक सं. ३८० में सर्वनन्दी के द्वारा रचा गया था।१४ (क.पा. / भा.१ / प्रस्ता./ पृ.५८)। अतः इस आधार पर यह सिद्ध ११४.“वर्तमान में जो संस्कृत लोकविभाग पाया जाता है, उसके अन्त में लिखा है कि पहले सर्वनन्दी आचार्य ने शक सं. ३८० में शास्त्र (लोकविभाग) लिखा था, उसी की भाषा को परिवर्तित करके यह संस्कृत लोकविभाग रचा गया है।" (क.पा./भा.१/प्रस्ता./पृ.५८)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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