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________________ अ०१० / प्र०२ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २९७ स्तत्त्व और बाह्यतत्त्व का गौण - मुख्यरूप से प्रतिपादन करने के लिए अथवा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप-रुचिशिष्यों के प्रतिबोधनार्थ रचे गये पञ्चास्तिकायप्राभृतशास्त्र में यथाक्रमेण अधिकारशुद्धिपूर्वक तात्पर्यार्थ का व्याख्यान किया जा रहा है । " इसके बाद आचार्य जयसेन पंचास्तिकाय की अन्तिम गाथा ( १७३ ) की तात्पर्यवृत्ति समाप्त होने के पश्चात् कहते हैं 44 'अथ यतः पूर्वं संक्षेपरुचिशिष्यसम्बोधनार्थं पञ्चास्तिकायप्राभृतं कथितं ततो यदा काले शिक्षां गृह्णाति तदा शिष्यो भण्यते इति हेतोः शिष्यलक्षणकथनार्थं परमात्माराधक-पुरुषाणां दीक्षाशिक्षाव्यवस्थाभेदाः प्रतिपाद्यन्ते । दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थभेदेन षट्काला भवन्ति । तद्यथा - यदा को प्यासन्नभव्यो भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमाचार्यं प्राप्यात्माराधनार्थं बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागं कृत्वा जिनदीक्षां गृह्णाति स दीक्षाकालः । दीक्षानन्तरं निश्चयव्यवहार - रत्नत्रयस्य परमात्मतत्त्वस्य च परिज्ञानार्थं तत्प्रतिपादकाध्यात्मशास्त्रेषु यदा शिक्षां गह्णाति स शिक्षाकालः । --- 11 अनुवाद - " पूर्व में कहा गया है कि संक्षेपरुचि - शिष्यों को शिक्षा देने के लिए पञ्चास्तिकायप्राभृत की रचना की गयी है, और जिस काल में शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करता है, उस काल में वह शिष्य कहलाता है, अतः शिष्य का लक्षण बतलाने के लिए परमात्मा के आराधक पुरुषों की दीक्षा, शिक्षा आदि की व्यवस्था के भेद प्रतिपादित किये जा रहे हैं। दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ के भेद से छह काल होते हैं । जैसे, जब कोई आसन्नभव्य भेदाभेदरत्नत्रययुक्त आचार्य के पास जाकर आत्मा की आराधना के लिए बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर जिनदीक्षा ग्रहण करता है, वह दीक्षाकाल है। दीक्षा के अनन्तर निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय और परमात्मतत्त्व का ज्ञान करने के लिये उनके प्रतिपादक शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण करता है, तब वह शिक्षाकाल होता है । " इन कथनों में आचार्य जयसेन ने मुनिदीक्षा ग्रहण करने के बाद गुरु से शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण करनेवाले को ही 'शिष्य' कहा है। अतः शिवकुमार महाराज आदि को 'शिष्य' कहने से सिद्ध है कि शिवकुमार महाराज और उनके साथी 'मुनि' थे । इसके अतिरिक्त प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति के आरंभ में (पंचगाथात्मक मंगलाचरण की पातनिका में) शिवकुमार को परमचारित्र ( वीतरागचरित्र ) ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करते हुए वर्णित किया गया है। उन वचनों को पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने पूर्वोल्लिखित वक्तव्य में उद्धृत किया है। उनसे भी सिद्ध होता है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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