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२९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०२ अर्वाचीन है। दूसरे, इस बात का समर्थन करने वाले प्रमाणों का अभाव है कि कदम्ब प्राकृत भाषा से परिचित थे, जिसमें कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थ रचे हैं। डॉ० पाठक के मत के विपरीत प्रो० चक्रवर्ती ने पल्लव राजवंश के शिवस्कन्द को शिवकुमार महाराज मानने पर जोर दिया है, क्योंकि स्कन्द और कुमार शब्द एकार्थवाची हैं, अतः शिवस्कन्द का अर्थ होता है शिवकुमार। शिवस्कन्द युवमहाराज भी कहे जाते थे और युवमहाराज तथा कुमारमहाराज एकार्थक हैं। अन्य परिस्थितियाँ भी इस एकरूपता की पोषक हैं। पल्लवों की राजधानी कंजीपुरम् थी। पल्लव थोण्डमण्डलम् पर शासन करते थे। यह प्रदेश विद्वानों की भूमि माना जाता है। इसकी राजधानी ने अनेक द्रविड़ विद्वानों को आकर्षित किया था। कंजीपुरम् के राजगण ज्ञान के संरक्षक थे। ईसा की आरम्भिक शताब्दियों से लेकर आठवीं शताब्दी तक अर्थात् समन्तभद्र से लेकर अकलंक तक कंजीपुरम् के चारों ओर जैनधर्म का प्रचार होता रहा है। अतः यदि कंजीपुरम् के पल्लवराजा ईसा की प्रथम शताब्दी में जैनधर्म के संरक्षक थे या जैनधर्म को पालते थे, तो यह असम्भव नहीं है।
"इसके सिवाय मयीडवोलु-दानपत्र की भाषा प्राकृत है। यह दानपत्र कंजीपुरम् के शिवस्कन्द वर्मा के द्वारा जारी किया गया था। इसके प्रारंभ में सिद्ध शब्द का प्रयोग है तथा मथुरा के शिलालेखों से यह बहुत मिलता-जुलता है। ये बातें बतलाती हैं कि इसके दाता राजा का झुकाव जैनधर्म की ओर था। अन्य अनेक शिलालेखों आदि से यह स्पष्ट है कि पल्लव राजाओं के राज्य की भाषा प्राकृत थी। अतः प्रो० चक्रवर्ती ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कुन्दकुन्द ने जिस शिवकुमार महाराज के लिए प्राभृतत्रय लिखे थे, वह बहुत सम्भवतया पल्लववंश का शिवस्कन्द वर्मा है।" (जै.सा.इ / भा.२/पृ. ११४-११५)। 'शिवकुमारमहाराज' नामक मुनि का उल्लेख
किन्तु आचार्य जयसेन द्वारा उल्लिखित शिवकुमार महाराज, न तो शिवमृगेशवर्मा हो सकते हैं, न शिवस्कन्दवर्मा, क्योंकि जयसेन ने उन्हें मुनि के रूप में चित्रित किया है, यह पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में आदि और अन्त में कहे गये उनके वचनों से स्पष्ट है। आदि में वे लिखते हैं
"श्रीमत्कुण्डकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयैरन्तस्तत्त्वबहिस्तत्त्वगौणमुख्यप्रतिपत्त्यर्थमथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थं विरचिते पञ्चास्तिकायप्राभृतशास्त्रे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं तात्पर्यार्थव्याख्यानं कथ्यते"(ता.वृ., पातनिका / पं.का./ गा.१)।
अनुवाद-"पद्मनन्दी आदि अपरनामोंवाले श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य-देव द्वारा अन्त
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