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________________ अ०१०/प्र०२ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २९५ को छोड़ कर प्राकृतभाषा में लिखा हुआ है और उससे शिवस्कन्द की दरबारी भाषा का प्राकृत होना पाया जाता है, जो इस ग्रन्थ की रचना आदि के साथ शिवस्कन्द का सम्बन्ध स्थापित करने के लिये ज्यादा अनुकूल जान पड़ती है। साथ ही, शिवस्कन्द का समय भी शिवमृगेश से कई शताब्दियों पहले का अनुमान किया गया है।११ इसलिये पाठक महाशय का उक्त समीकरण किसी तरह भी ठीक मालूम नहीं होता। जान पड़ता है उन्होंने इस समीकरण को लेकर ही दो ताम्रपत्रों में ११२ उल्लिखित हुए तोरणाचार्य को, कुन्दकुन्दान्वयी होने के कारण, केवल डेढ़सौ वर्ष पीछे का ही विद्वान् कल्पित किया है, अन्यथा, वैसी कल्पना के लिये दूसरा कोई भी आधार नहीं था। हम कितने ही विद्वानों के ऐसे उल्लेख देखते हैं, जिनमें उन्हें कुन्दकुन्दान्वयी सूचित किया है और वे कुन्दकुन्द से हजार वर्ष से भी पीछे के विद्वान् हुए हैं। उदाहरण के लिये शुभचन्द्राचार्य की पट्टावली को लीजिये, जिसमें सकलकीर्ति भट्टारक के गुरु पद्मनन्दि को कुन्दकुन्दाचार्य के बाद तदन्वयधरणधुरीण लिखा है और जो ईसा की प्रायः १५वीं शताब्दी के विद्वान् थे। इसलिये उक्त ताम्रपत्रों के आधार पर तोरणाचार्य को शक सं० ६०० का और कुन्दकुन्द को उनसे १५० वर्ष पहले शक सं० ४५० का विद्वान् मान लेना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता और वह उक्त समीकरण की मिथ्या कल्पना पर ही अवलम्बित जान पड़ता है। ४५० से पहले का तो शक सं० ३८८ का लिखा हुआ मर्कराताम्रपत्र है, जिसमें कुन्दकुन्द का नाम है, गुणचंद्राचार्य को कुन्दकुन्द के वंश में होनेवाला प्रकट किया है और फिर ताम्रपत्र के समय तक उनकी पाँच पीढ़ियों का उल्लेख किया है।" (स्वामी समन्तभद्र / पृ.१६७-१७२)। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी निम्नलिखित वक्तव्य में मुख्तार जी के कथन का समर्थन किया है "प्रो० ए० चक्रवर्ती ने भी डॉ० पाठक के उक्त मत को मान्य नहीं किया है। उनका कहना है कि एक तो कुन्दकुन्द के समय से कदम्बराज का समय बहुत १११. "चक्रवर्ती महाशय ने कुन्दकुन्द का अस्तित्वसमय ईसा से कई वर्ष पहले से प्रारंभ करके, उन्हें ईसा की पहली शताब्दी के पूर्वार्ध का विद्वान् माना है और इसलिये उनके विचार से शिवस्कंद का समय ईसा की पहली शताब्दी होना चाहिये, परन्तु एक जगह पर उन्होंने ये शब्द भी दिये हैं-"It is quite possible therefore that this Sivaskanda of Conjeepuram or one of the predecessor of the Same name was the contemporary and deciple of Sri Kundakunda." (Historical Introduction P, XII, Pancāstikāyasara) लेखक। ११२. जैन-शिलालेख-संग्रह/माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला / भाग २/ मण्णे-लेख क्र.१२२ / शक सं.७१९ (७९७ ई.) तथा मण्णे-लेख क्र.१२३ / शक सं. ७२४ (८०२ ई.)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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