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________________ अ०१०/प्र०२ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २९३ २. वैसे भी डॉ० पाठक ने जो शिवकुमार महाराज का श्रीविजय-शिवमृगेशवर्मा के साथ समीकरण किया है, वह प्रमाण-विरुद्ध है, क्योंकि पूर्व में दर्शाया जा चुका है कि राजा श्रीविजय-शिवमृगेशवर्मा के कुछ पहले (ई० सन् ४५०) अथवा उनके समय में हुए पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की गाथाएँ उद्धृत की हैं, इसलिए कुन्दकुन्द श्रीविजय-शिवमृगेशवर्मा से पूर्ववर्ती हैं। अतः वे श्रीविजयशिवमृगेश के गुरु नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त विद्वानों ने कुछ अन्य विसंगतियों की ओर भी संकेत किया है। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं-"प्रथम तो जयसेनादि का यह लिखना ही कि 'कुन्दकुन्द ने शिवकुमार महाराज के सम्बोधनार्थ अथवा उनके निमित्त इस पंचास्तिकाय की रचना की' बहुत कुछ आधुनिक मत जान पड़ता है, मूल ग्रन्थ में उसका कोई उल्लेख नहीं और न श्रीअमृतचन्द्राचार्य-कृत प्राचीन टीका पर से उसका कोई समर्थन होता है। स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य ने ग्रन्थ के अन्त में यह सूचित किया है कि उन्होंने इस पंचास्तिकायसंग्रह सूत्र को प्रवचनभक्ति से प्रेरित होकर मार्ग की प्रभावनार्थ रचा है। यथा मग्गप्पभावणटुं पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया। भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं सुत्तं॥ १७३॥ "इससे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द ने अपना यह ग्रन्थ किसी व्यक्तिविशेष के उद्देश्य से अथवा उसकी प्ररेणा को पाकर नहीं लिखा, बल्कि इसका खास उद्देश्य मार्गप्रभावना और निमित्तकारण प्रवचनभक्ति है। यदि कुन्दकुन्द ने शिवकुमार महाराज के सम्बोधनार्थ अथवा उनकी खास प्रेरणा से इस ग्रन्थ को लिखा होता, तो वे इस पद्य में या अन्यत्र कहीं उसका कुछ उल्लेख जरूर करते, जैसे कि भट्टप्रभाकर के निमित्त परमात्मप्रकाश की रचना करते हुए योगीन्द्रदेव ने जगह-जगह पर ग्रन्थ में उसका उल्लेख किया है। परन्तु यहाँ मूल ग्रन्थ में ऐसा कुछ भी नहीं, न प्राचीन टीका में ही उसका उल्लेख मिलता है और न कुन्दकुन्द के किसी दूसरे ग्रंथ से ही शिवकुमार का कोई पता चलता है। इसलिये यह ग्रंथ शिवकुमार महाराज के सम्बोधनार्थ रचा गया, ऐसा मानने के लिये मन सहसा तैयार नहीं होता। संभव है कि एक विद्वान् ने किसी किंवदन्ती के आधार पर उसका उल्लेख किया हो और फिर दूसरे ने भी उसकी नकल कर दी हो। इसके सिवाय, जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार की टीका में प्रथम प्रस्तावनावाक्य के द्वारा शिवकुमार का जो निम्न प्रकार से उल्लेख किया है, उससे शिवकुमार महाराज की स्थिति और भी संदिग्ध हो जाती है "अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्न-परमानन्दैकलक्षणसुखामृत-विपरीत-चतुर्गतिसंसारदुःखभयभीतः समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशातिशयः समस्तदुर्नयैकान्तनिराकृतदुराग्रहः परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपातेनात्यन्तमध्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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