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२९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०२ विक्रम की छठी शताब्दी से काफी पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। फलस्वरूप मुनि जी को या तो कुन्दकुन्द के दिगम्बरमत-प्रवर्तक होने की मान्यता छोड़नी होगी या उन्हें विक्रम की छठी शताब्दी से काफी पूर्ववर्ती स्वीकार करना होगा। किन्तु इनमें से कोई भी विकल्प चुनने पर वे दिगम्बरपरम्परा को अर्वाचीन सिद्ध नहीं कर सकेंगे, क्योंकि कुन्दकुन्द के दिगम्बरमत-प्रवर्तक होने की मान्यता छोड़ने पर यह सिद्ध होगा कि वह तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित है। और कुन्दकुन्द को विक्रम की छठी शताब्दी से पूर्ववर्ती स्वीकार करने पर उन सारे हेतुओं पर पानी फिर जायेगा, जिनके आधार पर मुनि जी ने कुन्दकुन्द को विक्रम की छठी शती का माना है और तब उनके पास कुन्दकुन्द को ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी का सिद्ध करनेवाले हेतुओं को अमान्य करने के लिए और कोई हेतु शेष नहीं रहेगा। क्योंकि दि इण्डियन एण्टिक्वेरी में उद्धृत नन्दिसंघीय पट्टावली एवं अन्य प्रमाणों से कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी के सिद्ध होते हैं, उसे ही मिथ्या सिद्ध करने के लिए मुनि जी ने उक्त प्रकार के असंगत हेतुओं का मायाजाल बिछाया है। किन्तु श्रीविजय-शिवमृगेशवर्मा के शिलालेख में निर्ग्रन्थ-महाश्रमणसंघ को दान दिये जाने का उल्लेख उस मायाजाल से माया का परदा हटा देता है और कुन्दकुन्द के ईसा-पूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में होने का सत्य सूर्य के समान प्रकाशित होने लगता है।
डॉक्टर के० बी० पाठक ने स्वीकार किया है कि श्रीविजय-शिवमृगेशवर्मा के अस्तित्वकाल से पहले ही जैन लोग निर्ग्रन्थ और श्वेतपट सम्प्रदायों में विभक्त हो गये थे।०९ अर्थात् कुन्दकुन्द दिगम्बर-सम्प्रदाय के प्रवर्तक नहीं थे। किन्तु मुनि जी ने डॉ० पाठक के इस कथन की उपेक्षा कर शिवकुमार महाराज और राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा को अभिन्न मानने के साथ-साथ कुन्दकुन्द को दिगम्बरपरम्परा का प्रवर्तक भी मान लिया है। इस कारण उनकी शिवमृगेश वर्मा के शिवकुमार महाराज होने की मान्यता असंगत अतएव मिथ्या हो गयी है। १०९. डॉक्टर के.बी. पाठक "Indian Antiquary", Vol. XIV, January 1885 में प्रकाशित
अपने लेख "An Old Kanarese Inscription At Terdal" में पृष्ठ 15 पर लिखते हैं-" Balachandra, the commentator, who lived before Abhinava-Pampa, says, in his introductory remarks on the Prābritasāra, that Kundakundāchārya was also, called Padmanandi and was the preceptor of Sivakumāramahārāja. I would identify this king with the Early Kadamba king Srivijaya-Siva-Mrigēsa-mahārāja. For, in his time, the Jainas had already been divided into the Nirgranthas and the Svētapatas. And Kundakunda attacks the Svētapata sect when he says, in the Pravachanasāra, that women are allowed to wear clothes because they are incapable of attaining nirvāņaचित्ते चित्ता माया तम्हा तासिं ण णिव्वाणं।"
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