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________________ द्वितीय प्रकरण मुनि कल्याणविजय जी के मत का निरसन श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी ने कुन्दकुन्द को विक्रम की छठी शती का विद्वान् सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इसके पक्ष में उन्होंने अपने ग्रन्थ श्रमण भगवान् महावीर में पृष्ठ ३०२ से ३०६ तक अनेक हेतु प्रस्तुत किये हैं। उनका वर्णन और निरसन नीचे किया जा रहा है। कदम्बवंशी शिवमृगेश के लिए पंचास्तिकाय की रचना मुनि जी का कथन है-" कुन्दकुन्दाचार्यकृत पञ्चास्तिकाय की टीका में जयसेनाचार्य लिखते हैं कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य ने शिवकुमार महाराज के प्रतिबोध के लिए रचा था। डॉ० पाठक के विचार से यह शिवकुमार ही कदम्बवंशी शिवमृगेश थे, जो सम्भवतः विक्रम की छठी शताब्दी के व्यक्ति थे । अतएव इनके समकालीन कुन्दकुन्द भी छठी सदी के ही व्यक्ति हो सकते हैं।" (श्र.भ.म. / पा.टि. / . / पृ.३०२) । निरसन जयसेनाचार्य - वर्णित शिवकुमार राजा नहीं थे १. इस हेतु का खण्डन सर्वप्रथम मुनि जी के ही वचनों से हो जाता है। उन्होंने कुन्दकुन्द को दिगम्बरमत का प्रवर्तक माना है। और श्रीविजय - शिवमृगेशवर्मा के देवगिरिताम्रपत्रलेख ( ई० सन् ४७० - ४९०) १०७ में कहा गया है कि उसने जिनमन्दिर, श्वेतपटमहाश्रमणसंघ एवं निर्ग्रन्थ- महाश्रमणसंघ को कालवङ्ग नामक ग्राम दान में दिया था । और मृगेशवर्मा के हल्सी - ताम्रपत्रलेख (४७० - ४९० ई०) १०७ में उल्लेख है कि उसने जिनालय का निर्माण कराकर यापनीयों, निर्ग्रन्थों और कूर्चकों को भूमिदान किया था।१०८ इससे सिद्ध होता है कि दिगम्बर- परम्परा (निर्ग्रन्थ - महाश्रमण संघ) श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के बहुत पहले से चली आ रही थी । अतः यदि मुनि जी के अनुसार कुन्दकुन्द को उसका प्रवर्तक माना जाय, तो वे श्रीविजय - शिवमृगेश वर्मा से अर्थात् १०७. जैन शिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला / भाग ३ / प्रस्तावना : डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी / पृ.२३ । १०८. उक्त ताम्रपत्रलेखों का मूलपाठांश अध्याय २ / प्रकरण ६ / शीर्षक २ में द्रष्टव्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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