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________________ २९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ का वर्णन है, पर उसकी रचना कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के आधार पर हुई है। इसका सप्रमाण प्रतिपादन 'मूलाचार' के अध्याय में द्रष्टव्य है। सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति की अस्वीकृति निर्ग्रन्थ-श्रमण-परम्परा का प्राण है। इनका युक्तिपूर्वक खण्डन सर्वप्रथम कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड और प्रवचनसार में ही मिलता है। द्रव्यानुयोग का प्राचीनतम ग्रन्थ भी कुन्दकुन्द का पंचास्तिकाय ही है। इससे इस बात को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता कि ४७० ई० के पूर्व निर्ग्रन्थ-श्रमण-परम्परा के पास उसके साम्प्रदायिक स्वरूप को प्रकट करनेवाले प्राचीनतम ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसारादि ही थे। यह तथ्य कुन्दकुन्द की प्राचीनता की पुष्टि करता है। विरोधीमतों का निरसन अनेक विद्वानों ने उपर्युक्त तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया और सन्दिग्ध संकेतों के आधार पर कुन्दकुन्द के समय का आकलन करने की चेष्टा की है। जिससे अनेक परस्पर विरोधी मतों का प्रादुर्भाव हुआ है। डॉ० के० बी० पाठक ने टीकाकार आचार्य जयसेन के इस कथन के आधार पर कि कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय की रचना शिवकुमार महाराज के प्रतिबोध के लिए की थी, उनका समय विक्रम की छठी शताब्दी (४७० ई० के आसपास) आकलित किया है। मुनि कल्याणविजय जी ने भी डॉ० पाठक के उक्त कथन के आधार पर तथा कुन्दकुन्द के ग्रंथों में प्रयुक्त कुछ शब्दों के आधार पर यही समय निर्धारित किया है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने भी नियमसार में उल्लिखित 'लोकविभाग' शब्द को आधार बनाकर लगभग उपर्युक्त समय ही स्वीकार किया है।०६ आचार्य श्री हस्तीमल जी हरिवंशपुराण में उल्लिखित पट्टावली को प्रामाणिक मानकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि कुन्दकुन्द वीरनिर्वाण सं० १००० (४७३ ई०) के आसपास हुए हैं, जबकि डॉ० हानले ने नन्दिसंघ की पट्टावलियों के आधार पर कुन्दकुन्द को ई० पू० ५२ से ई० ४४ तक विद्यमान माना है। प्रो० ए० चक्रवर्ती ने भी उनका अनुसरण किया है। कुन्दकुन्द ने श्रुतकेवली भद्रबाहु को अपना गमक गुरु कहा है, अतः आचार्यश्री ज्ञानसागर जी उन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु का ही समकालीन मानने के पक्ष में हैं, जब कि पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने उन्हें भद्रबाहु द्वितीय मानकर यह निर्णय किया है कि कुन्दकुन्द ई० सन् ८१ से १६५ के बीच स्थित थे। इन परस्परविरोधी मतों के हेतुवाद की हेत्वाभासता का प्रदर्शन करते हुए उत्तर प्रकरणों में इनका निरसन किया जा रहा है। १०६. देखिए , 'श्रमण भगवान् महावीर'। पादटिप्पणी/ पृ.३०१-३०६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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