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________________ अ०१०/प्र.१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २८९ उपाधिधारी कृष्ण तृतीय के मन्त्री द्वारा। क्योंकि जब राष्ट्रकूटवंश के एक राजा ने उस गाँव का दान कर दिया, तब उसी वंश के राजाओं द्वारा उसके छीने जाने और पुनः दान किये जाने की संभावना नहीं रहती। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मर्कराताम्रपत्र में उल्लिखित राजा अविनीत ने अपने ही मन्त्री को बदणेगुप्पे गाँव प्रदान किया था, जिसे उसने तळवननगर के श्रीविजयजिनालय को दान कर दिया। अकालवर्षपृथुवीवल्लभ कृष्ण तृतीय के काल में निश्चित ही मर्करा-ताम्रपत्र-लेख में अविनीत के मन्त्री के नाम के स्थान में 'अकालवर्ष-पृथुवीवल्लभ मन्त्री' उत्कीर्ण करवा दिया गया और उससे सम्बन्धित अन्य वृत्तान्त जोड़ दिया गया। अतः मर्करा-ताम्रपत्र में केवल इतना ही अंश जाली है, शेष अंश जाली नहीं है। अर्थात् राजा अविनीत अथवा उसके मन्त्री के द्वारा शक सं० ३८८ में श्रीविजयजिनालय के लिए कोण्डकुन्दान्वय के चन्दणन्दिभटार को 'बदणेगुप्पे' नामक ग्राम दान किये जाने का वृत्तान्त सत्य है। इस प्रकार मर्करा-ताम्रपत्रलेख के अनुसार कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल ४६६ ई० से बहुत पहले सिद्ध होता है। ये साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाण भी इस बात के सबूत हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसा की प्रथम शताब्दी से पहले हुए थे। अतः दि इण्डियन एण्टिक्वेरी की नन्दिसंघीय पट्टावली में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थितिकाल जो ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी बतलाया गया है, उसकी इन साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों से पुष्टि होती है। इस प्रकार सभी प्रमाण इस निर्णय पर पहुँचाते हैं कि कुन्दकुन्द ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध और ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए थे। ४७० ई. के पूर्व निर्ग्रन्थ-श्रमणसंघ के शास्त्रों का अस्तित्व कदम्बवंशी शिवमृगेशवर्मा के ४७० ई० के देवगिरि शिलालेख से यह सिद्ध है कि सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध करनेवाले निर्ग्रन्थ-महाश्रमणसंघ का अस्तित्व ४७० ई० के पूर्व से था। अतः यह भी निश्चित है कि उक्त संघ के इन सिद्धान्तों का युक्तिसंगतरूप से प्रतिपादन करनेवाले एवं दिगम्बर श्रमणों, श्रावकों और आर्यिकाओं के आचार का बोध करानेवाले, साथ ही आत्मादि द्रव्यों और मोक्षमार्ग के सर्वज्ञोपदिष्ट स्वरूप के विवेचक तथा कर्मसिद्धान्त के प्ररूपक शास्त्र भी उस समय विद्यमान होंगे। कर्मसिद्धान्त के प्ररूपक प्राचीनतम शास्त्र कसायपाहुड और षट्खण्डागम हैं, किन्तु द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग और अध्यात्म का निरूपण करने वाले सबसे प्राचीन उपलब्ध शास्त्र आचार्य कुन्दकुन्द के ही हैं। मुनियों के अट्ठाईस मूलगुणों का निरूपण सर्वप्रथम कुन्दकुन्द के प्रवचनसार में ही हुआ है। मूलाचार में भी अट्ठाईस मूलगुणों Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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