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२८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ जिनालय का उल्लेख है। हाँ, श्री सालेतोरे ने ऐसी अटकल लगायी है, जो डॉ० गुलाबचन्द्र जी चौधरी के निम्नलिखित वक्तव्य से सूचित होती है
"इस संग्रह (जैन शिलालेख संग्रह / भाग १,२,३) के बाहर के एक जैन लेख (मै. आ. रि.१९२१, पृष्ठ ३१) से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट कम्भ ने सन् ८०७ में अपने पुत्र की प्रार्थना पर तळवनपुर के श्रीविजयजिनालय के लिए कोण्डकुन्दान्वय के कुमारनन्दिभटार के प्रशिष्य एवं एलवाचार्य के शिष्य वर्धमानगुरु को बदणेगुप्पे ग्राम दान में दिया।०४ यह श्रीविजयजिनालय बहुतकर जिनभक्त महासामन्त श्रीविजय द्वारा ही निर्मापित हुआ था (सालेतोरे : 'मेडीवल जैनिज्म', पृ.३८)।" १०५
यहाँ 'बहुतकर' शब्द से स्पष्ट है कि उक्त ग्रन्थलेखक ने 'श्रीविजय' शब्द के साम्य से ही यह अटकल लगायी है कि तळवननगर का श्रीविजयजिनालय श्रीविजय द्वारा बनवाया गया था। यह अटकल सर्वथा अयुक्तियुक्त है, यह उपर्युक्त हेतुओं से सिद्ध है।
यहाँ एक विशेषता द्रष्टव्य है। तळवननगर के श्रीविजयजिनालय को बदणेगुप्पे ग्राम दो बार दान में दिया गया। पहली बार मर्करा-ताम्रपत्रलेख के अनुसार शक सं० ३८८ (४६६ ई०) में और दूसरी बार ८०७ ई० में। पहली बार कदम्बवंशी महाराज अविनीत के द्वारा दिया गया, दूसरी बार राष्ट्रकूटवंशी राजा कम्भ के द्वारा। पहली बार चन्दणन्दी भटार को सौंपा गया, दूसरी बार कुमारनन्दी भटार के प्रशिष्य वर्धमानगुरु को। अब प्रश्न उठता है कि एक ही गाँव, एक ही जिनालय को दो बार कैसे दान किया जा सकता है? यह संभव है। ४६६ ई० और ८०७ ई० में ३४१ वर्ष का अन्तर है। इस अन्तराल में अनेक बार सत्तापरिर्वतन हुए। किसी समय किसी जैनधर्म-विरोधी राजा के हाथ में सत्ता आयी होगी और जिनालयों के लिए दान में दिये गाँव पुनः राजसात् हो गये होंगे। इसी कारण शक सं० ३८८ में तळवननगर के श्री विजयजिनालय को दिया गया बदणेगुप्पे गाँव राजसात् हो गया होगा और उसी अवस्था में राष्ट्रकूटनरेश कम्भ के हाथ में आया होगा। तब उसके पुत्र के प्रार्थना करने पर उसने पुनः उसी जिनालय को दान कर दिया होगा।
इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि राष्ट्रकूट राजवंश में तळवननगर के श्रीविजयजिनालय को बदणेगुप्पे गाँव का दूसरी बार दान सन् ८०७ में राजा कम्भ के द्वारा किया गया था, न कि ई० सन् ९३७ से ९६८ के बीच अकालवर्ष-पृथ्वीवल्लभ१०४. यह लेख भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित जैन शिलालेख संग्रह, भाग ४ में संगृहीत है,
जिसका क्रमांक ५४ है। १०५. जैन शिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला / भा.३ / प्रस्ता./ पृ.४९ ।
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