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________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २८७ यह सत्य है कि राजा शिवमार द्वितीय के पुत्र मारसिंह के सेनापति श्रीविजय ने ८ वीं शताब्दी ई० के चतुर्थपाद में मान्यनगर में अर्हदायतन (जिनालय) बनवाया था और शक सं० ७१९ (७९७ ई०) में उसके लिए 'किषु-वेक्कूर' ग्राम दान किया था।१०३ किन्तु मर्करा-ताम्रपत्र-लेख में 'श्रीविजयजिनालय' नाम से उसी जिनालय का उल्लेख है, इस मान्यता को सही सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। सेनापति श्रीविजय द्वारा मान्यपुर में बनवाये गये जिनालय को तो इस घटना का उल्लेख करने वाले दानपत्र में भी 'श्रीविजयजिनालय' नाम से अभिहित नहीं किया गया है। उसमें उसे केवल 'जिनेन्द्रभवन' या 'अर्हदायतन' कहा गया है।१०३ ढाकी जी की उक्त मान्यता को मिथ्या सिद्ध करनेवाला दूसरा हेतु यह है कि श्रीविजय ने मन्दिर का निर्माण मान्यनगर में कराया था, लेकिन मर्करा-ताम्रपत्र में उल्लिखित श्रीविजय-जिनालय तळवननगर में स्थित था। तीसरा हेतु यह है कि श्रीविजय ने मान्यनगर में जिनालय का निर्माण ८वीं शती ई० के अन्तिम चरण में कराया था, जब कि मर्करा-ताम्रपत्र-लेख के अनुसार तळवननगर के श्रीविजयजिनालय को बदणेगुप्पे ग्राम का दान शक सं० ३८८ (४६६ ई०) में किया गया था। और इसे असत्य सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त ४६६ ई० के मर्करा-ताम्रपत्रलेख में उन्हीं कोङ्गणिमहाधिराज अविनीत तथा चन्दणन्दिभटार के नाम हैं, जिनके नाम ४२५ ई० के नोणमंगल के ताम्रपत्रलेख में हैं। इससे मर्करा ताम्रपत्रलेख का शक सं० ३८८ (४६६ ई०) वास्तविक सिद्ध होता है। इन हेतुओं से सिद्ध है कि मर्करा-ताम्रपत्रोल्लिखित श्रीविजयजिनालय सेनापति श्रीविजय द्वारा मान्यनगर में बनवाये गये जिनालय से भिन्न है। स्थानभेद और कालभेद होते हुए भी केवल 'श्रीविजय' इस नामसाम्य के कारण उसे श्रीविजय द्वारा मान्यनगर में निर्मापित जिनालय का उल्लेख मान लेना मर्करा-ताम्रपत्रलेख के साथ एक दूसरी जालसाजी करना है। किसी भी ग्रन्थ या शिलालेख में यह नहीं कहा गया है कि मर्करा-ताम्रपत्रलेख में 'श्रीविजयजिनालय' के नाम से सेनापति श्रीविजय द्वारा मान्यनगर में बनवाये गये १०३. "स मान्यनगरे श्रीमान् श्रीविजयोऽकार (य) च्छुभम्। जिनेन्द्रभवनं तुझं निर्मलं स्व-महस् समम्॥ --- श्रीमारसिंहस्यानुज्ञया श्रीविजयो महानुभावः किषु-वेक्कूर-ग्राममादाय मान्यपुरविनिर्मिताय भगवदर्हदायतनाय अदादिति।" जै.शि.सं/मा.च/भा.२/ मण्णे, ले.क्र. १२२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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