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________________ २८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ आचार्य को, जिनका उल्लेख उपर्युक्त ४२५ ई० के नोणमंगल-लेख (क्र.९४) में हुआ है। अतः मर्करा-ताम्रपत्रलेख में अविनीत द्वारा देशीयगण और कुन्दकुन्दान्वय के चन्दणन्दी भटार को शक सं० ३८८ में बदणेगुप्पे ग्राम दिये जाने की जो घटना वर्णित है, उसमें सन्देह करने का कोई कारण नहीं है। अतः सिद्ध है कि पाँच सौ वर्ष पूर्व की उक्त घटना मर्करा ताम्रपत्रों के पुनर्लेखन के समय में नहीं जोड़ी गयी है, अपितु वह ताम्रपत्रों में पूर्वलिखित थी। उसे पुनर्लेखन के समय पुनः लिख दिया गया। केवल राजा अविनीत के मन्त्री का नाम हटाकर अकालवर्ष-पृथुवीवल्लभ के मंत्री का उल्लेख कर दिया गया तथा उससे सम्बन्धित अन्य वृत्तान्त भी जोड़ दिया गया। इस तर्कसंगत अनुमिति से उपर्युक्त समस्त जटिल प्रश्न निरस्त हो जाते हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि मर्करा-ताम्रपत्रलेख अंशतः कृत्रिम है, पूर्णतः नहीं। किन्तु , प्रो० एम० ए० ढाकी ने एक अन्य हेत्वाभास के द्वारा उक्त पाँच सौ वर्ष पूर्व की घटना को भी असत्य सिद्ध करने की चेष्टा की है। वे लिखते हैं"प्रेमी जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि मर्कराताम्रपत्र में उल्लिखित श्री विजयजिनालय, जिसके कुन्दकुन्दान्वयी आचार्य चन्दणन्दिभटार को बदणेगुप्पे ग्राम के दान का उल्लेख है, ८ वीं शती ई० के अन्त में गंगवंशी राजा मारसिंह द्वितीय के सेनापति श्रीविजय ने मान्यनगर में बनवाया था। अतः कुन्दकुन्दान्वय ८ वीं शती ई० से प्राचीन नहीं हो सकता है।"१०१ इसका तात्पर्य यह है कि मर्कराताम्रपत्र में शकसंवत् ३८८ में कोङ्गणिमहाधिराज अविनीत द्वारा चन्दणन्दिभटार को ग्रामदान किये जाने का जो उल्लेख है, वह असत्य है। इससे मर्करा ताम्रपत्रलेख का जाली होना सूचित होता है। किन्तु आगे NOTES AND REFERENCES (S. N. 29) में प्रो० ढाकी लिखते हैं कि "वस्तुतः वह कथन प्रेमी जी का नहीं है, अपितु किसी अन्य लेखक का है, जिसका ग्रन्थ अभी मेरे पास नहीं है।"१०२ १०१. "But the Jaina temple to the pontiff of which the grant was addressed in this charter is Vijaya-Jinālaya of Mānyanagara or Mānyapura, Manne in Gangavādi, the temple known to have been founded by Vijaya, general of Ganga Mārsimha II in c. late eighth century A.D. as shown by Premi ! The mention, in this charter, of Kondakundānvaya can not, therefore, push back that anvaya's antiquity to any century prior to the eighth" (The Date of Kundakundācārya, Aspects of Jainology, Vol. III, p. 190). १०२ "I lately realised it was not Premi, but some other author whose work is currently not handy." (The Date of Kundakundācārya, Aspects of Jainology, Vol. III, p.202). Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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