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अ०१० / प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २८५
३. यदि अकालवर्ष पृथ्वीवल्लभ के मंत्री ने महाराज अविनीत द्वारा प्रदत्त ग्राम का दान ९३७ ई० से ९६८ के बीच किया था, और इसी समय मर्करा - ताम्रलेख का पुनर्लेखन कराया गया था, तो लेख में ग्रामदान करने का समय शक सं० ३८८ (४६६ ई०) क्यों लिखवाया गया ?
४. तथा पुनर्लेख में अविनीत राजा की वंशावली और विरुदावली को तो ज्यों का त्यों रहने दिया गया है, किन्तु उनके द्वारा दिये हुए ग्राम का दान करनेवाला पुरुष जिस राजा अकालवर्ष - पृथ्वीवल्लभ कृष्ण तृतीय का मन्त्री था, उस राजा के नाम तक का उल्लेख नहीं किया गया तथा उसके मन्त्री के नाम को भी अज्ञात रखा गया। ऐसा क्यों किया गया ?
५. और यदि दान से सम्बन्धित देशीयगण - कोण्डकुन्दान्वय के आचार्यों के नाम ताम्रपत्रलेख में पुनर्लेखन के समय अर्थात् पाँच सौ वर्ष बाद जोड़े गये हैं, तो पुनर्लेखन कराने वाले अकालवर्ष- पृथ्वीवल्लभ को यह कैसे मालूम हुआ कि ५०० वर्ष पहले राजा अविनीत ने इन्हीं आचार्यों को बदणेगुप्पे ग्राम दान में दिया था और इन आचार्यों का गुरुशिष्य-क्रम यही था, तथा ये देशीयगण एवं कुन्दकुन्दान्वय के थे ?
६. यदि इन गुणचन्द्रादि के शिष्य चन्दणन्दी आचार्य को राजा अविनीत ने ग्रामदान नहीं किया था, तो भी ताम्रपत्र में अकालवर्ष - पृथ्वीवल्लभ ने ऐसा लिखवा दिया था, तो उसके द्वारा इस असत्य बात को लिखवाये जाने का क्या प्रयोजन था ? अथवा ये आचार्य देशीयगण और कुन्दकुन्दान्वय के नहीं थे, तो इनके साथ ये गण और अन्वय क्यों जोड़े गये ?
मर्करा-ताम्रपत्र लेख में पाँच सौ वर्ष पूर्व की घटना जोड़ी गयी, यह कल्पना उपर्युक्त असामान्य, जटिल प्रश्नों को जन्म देती है, जिनका कोई समाधान डॉ० गुलाबचन्द्र जी चौधरी या अन्य किसी के पास नहीं हो सकता । अतः यह कल्पना युक्तियुक्त नहीं है। हम देखते हैं कि ३७० ई० के नोणमंगल- लेख (क्र० ९० ) में राजा अविनीत के पिता माधववर्मा द्वितीय के द्वारा मूलसंघानुष्ठित जैनमंदिर को भूमि एवं कुमारपुर ग्राम दिये जाने का वर्णन है । १०० नोणमंगल के ही ४२५ ई० के लेख (क्र० ९४) में स्वयं अविनीत (कोङ्गणिवर्मा द्वितीय) के द्वारा मूलसंघ के चन्द्रनन्दी आदि आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठिापित उरनूर के जिनालय को वेनैल्करनि ग्राम का दान किये जाने का कथन है। १०० तथा मर्करा - ताम्रपत्रलेख में भी उन्हीं राजा अविनीत के द्वारा तळवननगर के जिनालय के लिए बदणेगुप्पे गाँव के दान का उल्लेख है, वह भी उन्हीं चन्दणन्दी
१००. देखिये, 'पुरातत्त्व में दिगम्बरपरम्परा के प्रमाण' नामक पंचम अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में उक्त शिलालेखों के मूलपाठांश ।
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