SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र० १ अध्येता डॉ॰ गुलाबचन्द्र जी चौधरी का कथन है कि यह नाम " हमें बलात् राष्ट्रकूटवंश के इतिहास की ओर ले जाता है। इस वंश में अकालवर्ष - उपाधिधारी तीन नरेश हुए हैं। उन सभी का नाम कृष्ण था । कृष्ण प्रथम का समय सन् ७५८ से ७७८ ई० के लगभग, द्वितीय का सन् ७७९ से ९१४ ई० के लगभग तथा तृतीय का सन् ९३७ से ९६८ ई० के लगभग बतलाया जाता है । ९६ " लेख नं० ९५ (मर्करा ताम्रपत्र) में चन्दणन्दिभटार को श्रीविजय - जिनालय के लिए अकालवर्ष नृप (कृष्ण तृतीय) के मन्त्री द्वारा बदणेगुप्पे नामक गाँव के दान का उल्लेख है। " ९७ इसे दृष्टि में रखते हुए वे लिखते हैं- " इस सबसे हमें लगता है कि मर्करा के प्राचीन ताम्रपत्रों को उक्त राजा के काल में पुनः नये रूप में उत्कीर्ण किया गया है। तभी इन नामों एवं घटना आदि के साथ दान से सम्बन्धित देशीयगण, कोण्डकुन्दान्वय के आचार्यों के नाम लिखे गये हैं।” ९८ मेरा मत भी ऐसा ही है कि उक्त राजा के काल में इन ताम्रपत्रों का पुनर्लेखन कराया गया है और लेख में कुछ अंश नया जोड़ा गया है। अतः यह ताम्रपत्रलेख अंशतः कृत्रिम है। “राजा अविनीत या उसके मंत्री ने शक सं० ३८८ में तळवननगर के श्रीविजय - जिनालय के लिए बंदणेगुप्पे ग्राम कुन्दकुन्दान्वय के चन्दणन्दिभटार को दान किया था, यह वृत्तान्त तो पुनर्लिखित ताम्रपत्रों में पूर्ववत् ही रखा गया है, शेष वृत्तान्त नया जोड़ दिया है। यदि ग्रामदान के वृत्तान्त को भी बाद में जोड़ा गया माना जाय तो निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं 11 १. यदि राजा अकालवर्ष - पृथ्वीवल्लभ कृष्ण तृतीय (९३७ - ९६८ ई०) के काल में मर्करा - ताम्रपत्र लेख में ग्रामदान का वृत्तान्त भी बाद में जोड़ा गया हो, तो उस राजा के मन्त्री के साथ ५०० वर्ष पूर्व (शक संo ३८८ = ४६६ ई०) की घटना क्यों जोड़ी गयी, जिसका उसके समय में घटित होना असंभव है? इसके अतिरिक्त राजा कोङ्गणिवर्मा अविनीत ( ४२५ ई०) ९९ अपने से ५०० वर्ष बाद होनेवाले अविद्यमान मंत्री को तळवननगर - जिनालय के लिए दान करने हेतु कोई ग्राम आदि वस्तु कैसे दे सकता था ? २. अपने राज्य का ग्राम उन्होंने दूसरे राज्य के मंत्री के द्वारा क्यों दिलवाया ? अपने ही मंत्री के द्वारा क्यों नहीं दिलवाया या स्वयं क्यों नहीं दिया ? ९६. जैन शिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला / भा. ३ / प्रस्तावना/पृ.४८ । धवला / पु.६ / पृ.१२ । ९७. वही / भाग ३ / प्रस्तावना / पृ/ ५३ । ९८. वही / भाग ३ / प्रस्तावना / पृ.५०/ पादटिप्पणी । ९९. वही / भा. २ / नोणमंगल - लेख क्र. ९४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy