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अ०१० / प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २८३
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मर्करा - ताम्रपत्रलेख में कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख
मर्करा के खजाने से प्राप्त ताम्रपत्रलेख में शकसंवत् ३८८ (४६६ ई०) में कुन्दकुन्दान्वय के आचार्य चन्द्रनन्दी-भटार को एक जिनालय के लिए ग्रामदान का उल्लेख है। लेख की सम्बद्ध पक्तियाँ इस प्रकार हैं
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'श्रीमान् कोङ्गणिमहाधिराज अविनीतनामधेय दत्तस्य देसिगगण-कोण्डकुन्दान्वय-गुणचन्द्रभटारशिष्यस्य अभणन्दि (अभयनन्दि ) भटार तस्य शिष्यस्य शीलभद्रभटारशिष्यस्य जयणन्दिभटार-शिष्यस्य गुणणन्दिभटारशिष्यस्य चन्दणंदिभटारर्गे अष्टाअसीति - उत्तरस्य त्रयो- स (श) तस्य संवत्सरस्य माघमासं सोमवारं स्वातिनक्षत्र सुद्ध पञ्चमी अकालवर्ष - पृथ्वीवल्लभमन्त्री तळवननगर श्रीविजयजिनालयक्के बदणेगुप्पेनाम अविनीतमहाधिराजेन दत्तेन पडिये आळमूरू।" (जै.शि.सं./ मा.च. / भा.२/ .क्र.९५) ।
इसमें कहा गया है कि कोङ्गणि- महाधिराज अविनीत के द्वारा देशीयगण, कोण्डकुन्दान्वय के गुणचन्द्रभटार के शिष्य अभयणन्दिभटार, उनके शिष्य शीलभद्रभटार, उनके शिष्य जयणन्दिभटार, उनके शिष्य गुणणन्दिभटार, उनके शिष्य चन्दणन्दिभटार को तळवननगर के श्रीविजय - जिनालय के लिए दिया गया बदणेगुप्पे नामक गाँव अकालवर्ष - पृथ्वी-वल्लभ- मन्त्री ने शकसंवत् ३८८ की माघ शुक्ल पञ्चमी, सोमवार को स्वातिनक्षत्र में इस मन्दिर को प्रदान किया ।
कुन्दकुन्दान्वय में इन छह गुरु-शिष्यों की परम्परा का काल १५० वर्ष और कुन्दकुन्दान्वय के प्रतिष्ठित होने के लिए ५० वर्ष का अन्तराल मानने पर कुन्दकुन्द का समय ताम्रपत्रलेख के समय ( ४६६ ई०) से दो सौ वर्ष पूर्व अर्थात् २६६ ई० घटित होता है । ९५
किन्तु यह इस ताम्रपत्रलेख के अनुसार कुन्दकुन्दान्वय के आरंभ का अनुमानित काल है। अन्य स्रोतों से कुन्दकुन्दान्वय इससे पूर्ववर्ती सिद्ध होता है । पूर्वोद्धृत शिलालेखों और पट्टावलियों में प्रथम - द्वितीय शताब्दी ई० में हुए उमास्वाति को कुन्दकुन्दान्वय में उद्भूत बतलाया है। अतः कुन्दकुन्दान्वय की प्राचीनता से भी कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी ही सिद्ध होता है ।
पूर्णतः कृत्रिम होने के मत का निरसन
उक्त लेख में अकालवर्ष - पृथ्वीवल्लभ-मंत्री नाम आया है। जैन शिलालेखों के
९५. जुगलकिशोर मुख्तार : 'जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश / पृ.६०२ ।
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