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२८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ ने कुन्दकुन्द-विरचित भावप्राभृत के 'एगो मे सस्सदो अप्पा' आदि गाथा (५९) को उद्धृत किया है।" ९३
इनके अतिरिक्त कुन्दकुन्द की निम्नलिखित गाथाएँ भी धवला एवं जयधवला में उद्धृत की गयी हैं
मरदु वा जियदु वा जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स॥
प्र.सा.३ / १७, ष.ख./ पु.१४ / पृ.९०, क.पा./ भा.१ / पृ.९४। उच्चालिदम्मि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे। आबाधेज कुलिंगो मरेज तं जोगमासेज॥ ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये। मुच्छा परिग्गहो चिय अज्झप्पपमाणदो भणिदो॥
प्र.सा./ता.वृ.पाठ ३ / १७-१,२, क.पा./ भा.१/ पृ.९४-९५ । वत्थु पडुच्च तं पुण अज्झवसाणं ति भणइ ववहारो। ण य वत्थुदो हु बंधो बंधो अज्झप्पजोएण॥
स.सा./२६५,क.पा./भा.१ /
पृ.९५। अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ। एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स॥
स.सा./२६२,क.पा./भा.१/पृ.९४ । जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ॥९४
स.सा./८०,ष.खं./पु.६ / पृ.१२। आठवीं शती ई० के वीरसेन स्वामी के द्वारा धवला और जयधवला में कुन्दकुन्द की उपर्युक्त गाथाओं के प्रमाणरूप में उद्धृत किये जाने तथा पंचस्थिपाहुड ग्रन्थ का उल्लेख किये जाने से सिद्ध है कि कुन्दकुन्द आठवीं शती ई० से बहुत पहले हुए थे।
९३. धवलाटीका / षट्खण्डागम / पु.६ / १,९-१,६/पृ.९ (षट्खण्डागम-परिशीलन / पृ०६३७)। ९४. धवलाटीका में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है-"ण य णाणपरिणदो पुण जीवो कम्म
समादियदि।"
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