SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ सव्वम्मि लोगखित्ते कमसो तं णत्थि जण्ण उप्पण्णं। ओगाहणा य बहुसो परिभमिदो खित्तसंसारे॥ २६॥ 'तक्कालतदाकाल' (भ. आ. १७७१) के भाव की पुष्टि बारस-अणुवेक्खा की ही निम्नलिखित गाथा से 'उक्तं च' निर्देशपूर्वक की गयी है उवसप्पिणिअवसप्पिणिसमयावलिगास णिरवसेसासु। जादो मदो य बहुसो भमणेण दु कालसंसारे॥ २७॥ 'सज्झायं कुव्वंतो' (भ. आ.१०३) गाथा में वर्णित मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रमाणित करने के लिए अपराजित सूरि ने पंचास्तिकाय का निम्न वचन उद्धृत किया है और 'इति वचनाच्च' कहकर उसका प्रामाण्य दर्शाया है गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तत्तो विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा॥ १२९॥ इति वचनाच्च। इस प्रकार आठवीं शताब्दी ई० के पूर्वार्ध में हुए अपराजित सूरि के द्वारा कुन्दकुन्द के उक्त वचनों को आगमप्रमाण के रूप में उद्धृत किये जाने से सिद्ध होता है कि वे अपराजित सूरि से बहुत प्राचीन थे। १० ८वीं श.ई. की धवला, जयधवला में कुन्दकुन्द की गाथाएँ १०.१. धवला का रचनाकाल ७८० ई० हरिवंशपुराणकार जिनसेन (द्वितीय) ने धवलाकार वीरसेन स्वामी और उनके शिष्य आदिपुराणकार जिनसेन (प्रथम) की स्तुति हरिवंशपुराण (१/३९-४०) में की है। इन्होंने अपना समय शक सं० ७०५ अर्थात् ई० सन् ७८३ बतलाया है। अतः वीरसेन स्वामी इनसे पूर्ववर्ती या इनके समकालीन थे। उन्होंने सन् ७८० ई० में धवलाटीका पूर्ण की थी।८० १०.२. धवला में प्रमाणस्वरूप कुन्दकुन्द की गाथाएँ एवं ग्रन्थनाम वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की धवला टीका एवं कसायपाहुड की जयधवला ७९. शाकेष्वब्दशतेषु सप्तसु दिशं पञ्चोत्तरेषूत्तरां --- ___शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम्॥ ६६ / ५२-५३॥ हरिवंशपुराण। ८०. क-धवलाटीका / षट्खण्डागम / पु.१६ / धवलाकार-प्रशस्ति । पृ० ५९४। ख-डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन : भारतीय इतिहास एक दृष्टि / पृ० २२१-२२२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy