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अ०१०/प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २७७ "क्वचिदेकप्रघट्टेन
इंदसदवंदिदाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणमिति॥ १॥" प.का.। ___'णाणस्स दसणस्स' (भ.आ.११) गाथा की टीका में 'तथा चोक्तं' इस निर्देश के साथ प्रवचनसार की निम्न गाथा का उल्लेख किया गया है
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्छ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ १/७॥ 'णाणेण सव्वभावा' (भ. आ.१००) गाथा के भाव की पुष्टि के लिए प्रवचनसार की अधोलिखित गाथा प्रस्तुत की गयी है और अन्त में 'इति वचनात्' उक्ति से उसकी प्रमाणरूपता का प्रदर्शन किया गया है
जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थिदं विमलं।
रहिदं तु उग्गहादिहिं सुहंति एयंतियं भणियं ॥ १/५९॥ इति वचनात् ---1
'दंसणमाराहंतेण' (भ.आ.४) की टीका में निम्नलिखित प्रस्तावना-वाक्य के साथ समयसार की ४९वीं गाथा का पूर्वार्ध प्रमाणरूप में उद्धृत किया गया है
"तत्रेदं परीक्ष्यते, विषयाकारपरिणतिरात्मनो यदि स्याद्रूपरसगन्धस्पर्शाद्यात्मकता स्यात्तथा च 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसई' इत्यनेन विरोधः।"
"हिंसादो अविरमणं' (भ. आ. ८००) गाथा के अभिप्राय की पुष्टि अपराजित सूरि ने समयसार की इस गाथा के द्वारा की है
अज्झवसिदेण बंधो सत्तो दु मरेज णो मरिजेत्थ।
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स॥ २६२॥ "एगविगतिगचउ' (भ. आ. १७६७) गाथा के कथन का समर्थन बारस-अणुवेक्खा की गाथा से किया गया है और गाथान्त में 'इति वचनात्' के उल्लेख द्वारा उसकी प्रमाणरूपता प्रदर्शित की गयी है
णिरयादिजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवज्जा।
मिच्छत्तसंसिदेण दु भवट्ठिदी भजिदा बहुसो॥ २८॥ इति वचनात्।
'जत्थ ण जादो ण मदो' (भ. आ. १७७०) इस गाथा में वर्णित क्षेत्रपरिवर्तन के समर्थन हेतु बारस-अणुवेक्खा की निम्नलिखित गाथा 'उक्तं च' कहकर उद्धृत की गयी है
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