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२७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१
जिसका रचनाकाल सातवीं शताब्दी ई० है । शृंगारशतक भी इसी समय का है। अतः विजयोदयाटीका इसके पश्चात् ही रची गई है। यह उसकी पूर्वावधि है । विजयोदया में सातवीं शती ई० के बाद के किसी भी ग्रन्थ से न तो कोई उद्धरण दिया गया है, न किसी ग्रन्थ का नामोल्लेख है । अतः यही अनुमानित होता है कि विजयोदयाटीका का लेखन नौवीं शती ई० के पूर्व अर्थात् आठवीं शताब्दी में हुआ है।
प्रेमी जी ने लिखा है कि " गंगवंश के पृथ्वीकोङ्गुणि महाराज का एक दानपत्र श० सं० ६९८ ( वि० सं० ८३३ = ७७६ ई०) ७७ का मिला है। उसमें यापनीयसंघ के चन्द्रनन्दी, कीर्तिनन्दी और विमलचन्द्र को 'लोकतिलक' जैनमन्दिर के लिए एक गाँव दिये जाने का उल्लेख है । अपराजित शायद इन्हीं चन्द्रनन्दी के प्रशिष्य होंगे।" (जै. सा. इ./ द्वि.सं./पृ.७९) ।
किन्तु यह अनुमान समीचीन नहीं है, क्योंकि अपराजित सूरि यापनीयसम्प्रदाय
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के नहीं थे, अपितु वे पक्के दिगम्बर थे, इसके प्रमाण 'अपराजितसूरि : दिगम्बर
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आचार्य' नाम के चतुर्दश अध्याय में द्रष्टव्य हैं। अतः वे किसी दिगम्बर चन्द्रनन्दीमहाप्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य और बलदेवसूरि के शिष्य थे । ९.२. विजयोदया में कुन्दकुन्द की गाथाओं के उदाहरण
आठवीं शती ई० के पूर्वार्ध में हुए अपराजित सूरि ने 'भगवती - आराधना' की विजयोदया - टीका में आचार्य कुन्दकुन्द - रचित प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय और बारस- अणुवेक्खा से कई गाथाएँ 'उक्तं च' आदि प्रस्तावना के साथ उद्धृत की हैं।
यथा
'सिद्धे जयप्पसिद्धे' इस मंगलगाथा ( क्र.१) की टीका में प्रवचनसार एवं पञ्चास्तिकाय की निम्नलिखित गाथाएँ अधोलिखित प्रस्तावना - वाक्यों के साथ उद्धृत की गयी हैं
"क्वचित्तीर्थकृत्स्वपि वीरस्वामिनः एव प्रथमं नमस्क्रिया
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघादिकम्ममलं ।
पणमामि वडमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ १ / १ ॥ प्र. सा. ।
सेसे पुण तित्थयरे सव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे । समणे य
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णाणदंसण-चरित्ततव - वीरियायारे ॥ १/२ ॥ " प्र. सा. ।
७७. जैन शिलालेख संग्रह / माणिकचन्द्र / भाग २ / देवरहल्लि - लेख क्र. १२१ । ७८. देखिये, भगवती - आराधना-विजयोदयाटीका - प्रशस्ति ।
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