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________________ अ०१०/प्र०१ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २७५ डॉ० सागरमल जी ने 'दंसणभट्टो भट्टो' गाथा भक्तपरिज्ञा की तथा 'एगो मे सासओ', 'संजोयमूलं' एवं 'सम्मं मे सव्वभूदेसु', ये गाथाएँ आतुरप्रत्याख्यान की मौलिक गाथाएँ बतलायी हैं। ७५ किन्तु भक्तपरिज्ञा और आतुरप्रत्याख्यान को स्वयं डॉक्टर सा० ने ११ वीं शताब्दी ई० में रचित कहा है।६ यद्यपि उन्होंने ५ वीं शती ई० के नन्दीसूत्र में उल्लिखित आतुरप्रत्याख्यान को प्राचीन माना है, किन्तु उसका विच्छेद हो चुका है। अर्थात् नन्दीसूत्र में विच्छिन्न आतुरप्रत्याख्यान का नाममात्र दिया गया है। अतः वर्तमान में जो आतुरप्रत्याख्यान उपलब्ध है, वह ११ वीं शती ई० के वीरभद्र द्वारा ही रचित है। (देखिये, अध्याय १३ / प्रकरण ३/ शीर्षक ७.२)। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उक्त गाथाएँ इन ग्रंथों से सातवीं शताब्दी ई० के वरांगचरित में नहीं आ सकतीं। अतः वे ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी के कुन्दकुन्दसाहित्य तथा प्रथम शताब्दी ई० के भगवती-आराधना और मूलाचार से ही वरांगचरित में पहुँची हैं, और वहीं से उन्हें श्वेताम्बरीय भक्तपरिज्ञा और आतुरप्रत्याख्यान में प्राप्त किया गया है। ८ वीं श. ई. की विजयोदयाटीका में कुन्दकुन्द की गाथाएँ ९.१. 'विजयोदया' का रचनाकाल भगवती-आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि आठवीं शताब्दी ई० के पूर्वार्ध में हुए थे। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उन्हें अनुमानतः विक्रम की नौवीं शताब्दी के पहले और छठी शताब्दी के बाद का बतलाया है। यह युक्तिसंगत प्रतीत होता है, क्योंकि विजयोदया में समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, बारस-अणुवेक्खा, मूलाचार, स्वयम्भूस्तोत्र, वरांगचरित, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, प्राकृतपञ्चसंग्रह, दशवैकालिकसूत्र, आवश्यकसूत्र (श्वेता.), आचारांग (श्वेता.), उत्तराध्ययन (श्वेता.) और भर्तृहरिशृंगारशतक से उद्धरण दिये गये हैं। इनमें अर्वाचीनतम उद्धरण वरांगचरित का है, ७५. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ.१९२-१९३। ७६. डॉक्टर सा० ने अपने एक लेख में लिखा है-"प्रकीर्णकों में निम्नलिखित प्रकीर्णक वीरभद्र की रचना कहे जाते हैं-चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताका । आराधनापताका की प्रशस्ति में 'विक्कमनिवकालाओ अट्टत्तरिमे-समासहसम्मि' या पाठभेद से 'अट्ठभेद से समासहस्समि' के उल्लेख के अनुसार इनका रचनाकाल ई० सन् १००८ या १०७८ सिद्ध होता है।" (आराधनापताका : आचार्य वीरभद्र/गाथा ९८७)। डॉक्टर सा० आगे लिखते हैं-"-- वीरभद्ररचित आउरपच्चक्खाण परवर्ती ही है, किन्तु नन्दीसूत्र में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है।" डॉक्टर सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ । खण्ड २ / पृ. ४४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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