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२७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र.१
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नियमसार – एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा॥ १०२॥ वरांगचरित - एकस्तु मे शाश्वतिकः स आत्मा सद्वृष्टिसज्ज्ञानगुणैरुपेतः।
शेषाश्च मे बाह्यतमाश्चभावाः संयोगसल्लक्षणलक्षितास्ते॥ ३१/१०१॥
नियमसार - सम्मं मे सव्वभूदेसु वे मज्झं ण केणवि।
__ आसाए वोसरित्ता णं समाहिं पडिवजए॥ १०४॥ वरांगचरित - सर्वेषु भूतेषु मनः समं मे वैरं न मे केनचिदस्ति किञ्चित्।
आशां पुनः क्लेशसहस्रमूलां हित्वा समाधिं लघु सम्प्रपद्ये ॥ ३१/१०३॥
समयसार – भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ १३॥ वरांगचरित - जीवादयो मोक्षपदावसाना भूतार्थतो येऽधिगता पदार्थाः।
नयप्रमाणानुगतक्रमेण सम्यक्त्वसंज्ञामिह ते लभन्ते॥ ३१/६८॥ इससे सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द सातवीं शती ई० के वरांगचरितकार जटासिंहनन्दी से पूर्ववर्ती हैं। वरांगचरित में भगवती-आराधना एवं मूलाचार की निम्नलिखित गाथाएँ भी संस्कृत में उपलब्ध होती हैं
भग.आरा. - दंसणभट्टो भट्टो ण हु भट्टो होइ चरणभट्टो हु।
___दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे॥ ७३८॥ वरांगचरित – दर्शनाद् भ्रष्ट एवानुभ्रष्ट इत्यभिधीयते।
न हि चारित्रविभ्रष्टो भ्रष्ट इत्युच्यते बुधैः॥ २६/९६ ॥ मूलाचार - संजोयमूलं जीवेण पत्तं दुक्खपरंपरं।
तम्हा संजोयसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरे॥ ४९॥ वरांगचरित - संयोगतो दोषमवाप जीवः परस्परं नैकविधानुबन्धि।
___ तस्माद्विसंयोगमतो दुरन्तमाजीवितान्तादहमुत्सृजामि॥ ३१/१०२ ॥ इन उदाहरणों से यह साबित होता है कि भगवती-आराधना और मूलाचार भी वरांगचरित (सातवीं शती ई०) से प्राचीन हैं।
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